हरिशंकर परसाई का 1950 के आस पास लिखा एक लघु लेख पढ़ा तो लगा के 2017 में कोई आइना आसमान पर टांग गया .
परसाई जी एक स्नेही के पास कुछ दिन रुके, घर में एक कुत्ता था बड़ा भौंकने वाला. आते ही ऐसा भौंका, की लगा गाली दी - क्यों आया है बे? तेरे बाप का घर है? भाग यहाँ से!
काफी देर भौंक पहले परसाई जी को दौड़ाया फिर अपने उच्चवर्गीय होने की धौंस जमा हीनभावना से भी ग्रसित कर गया.
खैर भौंकने के बाद हिकारत की नज़रों से देख नौकर के साथ अहाते में घूमने चला गया.
अहाते में दो सड़किया, सर्वहारा कुत्ते फाटक पर खड़े हो उसको देखते रहते थे, नौकर ने बताया की ये तो रोज़ का मामला है. बंगले वाला कुत्ता इन सर्वहारा कुत्तों को देख इनपर भौंकता, वो सहम जाते, इधर उधर हो जाते और फिर वापस आके इस कुत्ते को देखने लगते.
परसाई जी ने अपने मेज़बान को कहा की – ऐसे इसे इनपर भोंकना नहीं चाहिए, ये पट्टे और ज़ंजीर वाला है, सुविधाभोगी है, वे कुत्ते भुखमरे और आवारा हैं, इसकी और इनकी बराबरी नहीं, फिर ये क्यों उनको चुनौती देता है?
रात हुई, बंगले वाला कुत्ता अपने तख़्त पर लेता हुआ था की बाहर के सर्वहारा कुत्तों के भौंकने की आवाज़ आयी, तो ये कुत्ता भी भौंका. अचरज़ हुई की ये उनके साथ क्यों भोंकता है, सामने तो उनपे भोंकता है, और जब मोहल्ले में वही कुत्ते भौंकते हैं तो उनकी आवाज़ में आवाज़ मिलाने लगता है, जैसे आश्वाशन दे रहा हो की मैं यहाँ हूँ, तुम्हारे साथ हूँ.
परसाई जी को शक हुआ, ये उच्चवर्गीय कुत्ता नहीं है.
उनके पड़ोस में एक साहब के पास दो कुत्ते थे, निराला रोब था. उनको भोंकते नहीं सुना. आसपास कुत्ते भौंकते रहते पर वो उनपे ध्यान नहीं देते थे. लोग निकलते थे तो वो झपटते भी नहीं थे. कभी शायद एक धीमी गुर्राहट ही सुनी होगी. वो बैठे रहते, या घुमते रहते. फाटक खुला रहता तो भी बाहर नहीं निकलते थे. बड़े रोबीले, अहंकारी और आत्मसंतुष्ट.
यह कुत्ता उन सर्वहारा कुत्तों पर भौंकता भी है और उनकी आवाज़ में आवाज़ भी मिलाता है. कहता है की – “मैं तुमने शामिल हूँ”. उच्चवर्गीय झूठा रोब, और संकट के आभास पर सर्वहारा के साथ भी – यह जो चरित्र है कुत्ते का वो मध्यमवर्गीय चरित्र है. उच्वार्गीय होने का ढोंग भी करता है और सर्वहारा के साथ मिल के भोंकता भी है.
तीसरे दिन जब परसाई जी लौटे तो देखा कुत्ता त्रस्त पड़ा है, आहत पर वो भौंका नहीं. थोडा सा मरी आवाज़ में गुर्राया. आसपास के कुत्ते भोंक रहे थे.
मेज़बान ने बताया की, “आज बड़ी बुरी हालत में है, हुआ यह की नौकर की गफलत की वजह से ये फाटक के बाहर निकल गया, वे दोनों कुत्ते तो घात में ही थे. दोनों ने इसे घेरा, इसे रगेदा दोनों इस पर चढ़ बैठे ,इसे काटा. हालत ख़राब हो गयी. नौकर इसे बचा के लाया.
परसाई जी का चित्रण इसपर काफी मज़ेदार है, आप भी सोचें मज़ेदार तस्वीरें सामने आएंगी.
ये अकड़ कर बाहर निकला होगा, उन कुत्तों पर भौंका होगा. उन कुत्तों ने बोला होगा – की अबे अपना वर्ग नहीं पहचानता, ढोंग रचता है. ये पट्टा और ज़ंजीर लगाए है, मुफ्त का खाता है, लान पर टहलता है. और हमें ठसक दिखाता है. पर रात को किसी आसन्न संकट पर हम भौंकते हैं तो तू भी हमारे साथ हो लेता है. संकट में हमारे साथ है, मगर यूँ हमपर भोंकेगा. हममे से है तो बाहर निकल, छोड़ ये पट्टा और ज़ंजीर, छोड़ ये आराम, घूर पर पड़ा अन्न खा या चुरा के रोटी खा. धूल में लोट.
वह फिर भोंका होगा, कुत्ते झपटे होंगे – इसे रगेदा, पटका, और धूल खिलाई.
पहले तो मैं एक बात क्लियर कर दूँ – इसपर बहुत विचार किया और हाइपोथीसिस निकला है की मैं सर्वहारा वर्ग ही हूँ. सबूत – बैलटबॉक्सइंडिया. मैं चुपचाप डिजिटल इंडिया और गूगल वाले की दुम पकड़ कोई चीनी माल के कूपन बेच सकता था, और भी आसान - अपनी वाल स्ट्रीट की नौकरी को पकड़ चुपचाप स्विमिंग पूल वाला मकान ले बियर की बोतल पकड़ भारत के सिस्टम को गरियाता. या पिचई को अपना आदर्श मान, रास्ता पकड़ इसी गूगल के सिस्टम से जुड़ अरबपति बनने चल देता.
मगर आज खेत, गाँव, कीचड़ वाली नदियाँ, डंपिंग यार्ड, एस. टी. पी., तालाब, नेताओ, आर.टी.आई., डिपार्टमेंट और भारत के सिस्टम से घूम घूम के माथा मार रहा हूँ, तो सर्वहारा वर्ग का लाल खून अभी भी लगता है बाकि है.
ये कहानी 70 साल पहले जितनी सटीक रही होगी आज भी उतनी ही सटीक बैठती है. मैं इसका खुद एक भुक्तभोगी रहा हूँ, कई बार महसूस किया है.
भारत के लिए अपनी सहज जिज्ञासा लिए जब मैं बैलटबॉक्सइंडिया नवप्रवर्तन यात्रा पर निकला तो धूल से दोस्ती पुरानी थी.
जैसे एक महामूर्ख, महाकपटी (विरोधाभास) कैलिफ़ोर्निया में बैठे अरबपति की योजना सोलर ड्रोन उड़ा कर भारत के गाँव गाँव में मुफ्त “बेसिक” इन्टरनेट देने की थी, अब इसके पीछे कलुषित मंशा पर काफी मंथन हुआ मगर डिजिटल विदेशी उपनिवेशवाद पर आधारित इस सोच ने भी इस संवाद पर ध्यान नहीं दिलाया की हर इनोवेशन को ज़मीन से उठना चाहिए, ना की आकाश से देवता जैसे पुष्प बरसाने का भ्रम देना चाहिए और पूरी सामाजिक प्रणाली तोड़ बस अपना भौतिक या राजनितिक माल बेचने की कोशिश करनी चाहिए.
या जैसे एक बड़ी अंतर्राष्ट्रीय साबुन कंपनी का मालिक टेड टॉक पर सूट बूट धारी श्रोतागण को कैसे उसका साबुन और डिटर्जेंट भारत के गाँव में कपडे धोने के पानी लाखों लीटर की बचत करता है का व्याख्यान देता है. और कैसे वो हर सरकारी योजना के साथ जुड़ कर गाँव गाँव का उद्धार कर रहा है, मगर इस बात से अनभिज्ञ है की गाँव के लोग परंपरागत तरीके से जब खादी के कपडे धोते हैं, और कड़क धुप में सुखाते हैं तो ना पानी ख़राब होता है, ना कपड़े.
बस पश्चिमी ज़रूरतों को भारत की जनसँख्या पर चिपका जीडीपी जैसे अजब गजब मानक डाल अमिताभ बच्चन(*प्रतीकात्मक) से बिकवा दो, और जब समाज टूटे और डूबे तो फ़ूड पैकेट्स फेंक अपने सर्वदाता होने का अहसास दिलाओ.
*गाँव के कुवें में बस दो हफ्ते का पानी
सूखाग्रस्त बुंदेलखंड में जब एक किसान इन भ्रष्ट, नाकारा, चोर और लुच्चे किस्म के शहरिओं का हुक्का पानी कैसे बंद किया जाए पर बात कर रहा था तो पीछे से कुछ किसान बोले “अरे इन शेहेरिओं को अपनी सब बात मत बताओ”, अपने वर्ग कन्फुजन का अहसास हुआ.
नोट –शहर लूट और शोषण पर बसे हैं और शहरी लुच्चे, नाकारा, आलसी, व्यसनी, चोर, मूर्ख, लालची, क्रूर, स्वार्थी सब होते हैं मगर उनकी भी समाज में एक बहुत बड़ी व्यवहारिक ज़रुरत है, और मेरी सोच इन कुछ किसान भाइयों से थोड़ी अलग है, मगर उस पर लेख बाद में.
उस समय अगर बाबा राम रहीम के लाखों प्रेमियों का टीवी पर बर्ताव देखता तो आम बंगले वाले श्वान मित्र की तरह ज़रूर दो चार गालियाँ भारत की व्यवस्था को देता, फिर लोगों को – “देखो कितने जाहिल हैं”, “मूर्ख हैं”, “ऐसे बाबा के चक्कर में आ गए”, और फिर राजनीतिज्ञों की बारी आती की “कितने घटिया नेता हैं हमारे” इत्यादि. इस देश का कुछ हो नहीं सकता, यहाँ तो हिटलर ही आ जाए, तानाशाही हो जाए, आर्मी को दे दो, सबको सुधार देगी इत्यादि. विदेश में देखो ऐसा होता है, वैसा होता है, क्या व्यवस्था है, क्या नेता हैं, क्या दुकाने हैं, क्या सड़कें हैं, कैसे लोग लाइन में चलते हैं.
मगर आज ऐसा कुछ बोल नहीं पाता – एक बातचीत में सिर्फ इतना ही बोल पाया की – अगर इन लाखों रोज़ी रोटी दे पाओ तो जज करो, वर्ना चुप रहो. और टीवी पर देख कर तो आओ मत, सामने जा के देखो तब बात करो.
नोट - बाबा ने अपराध किया है सज़ा मिली, कुछ अपराधिक प्रवृति के भड़काने वाले साथ थे पुलिस उनसे निपट रही है, कुछ लोगों ने एक बड़ा काम किया है, हमारे गोमती रिवेर्फ्रोंत मामले में सीधे सिस्टम से मुलाकात के बाद इन कुछ आम लोगों की 15 साल की लड़ाई की भीषणता का अंदाज़ा तो अब लग ही जाता है, इनको मेरे हिसाब से सबसे ज्यादा फुटेज मिलनी चाहिए थी, मगर फिर कई टीवी वाले भी लाइन हाज़िर होते, वैसे भी ये सब कहाँ बिकता है.
बहरहाल इसमें बंगले वाले मध्यमवर्गीय का लाखों सर्वहारो पर भोंकना अब बंद होना चाहिए.
ये ‘स्टेबिलिटी’ का नारा ही आज गूगल वाले का बिज़नस मॉडल है. यही बिज़नस मॉडल जो आज राजनीतिज्ञ भी सीख गए हैं. अरबों लोगों को हाशिये पर टिका उनके हाथ में सस्ता स्मार्ट फ़ोन दे, उनके बच्चों का भविष्य दोहन कर पिछले साल गूगल वाले भारतीय मालिक ने १०० मिलियन डॉलर (६०० करोड़ सालाना) की तनख्वाह पाई, ऐसी कहानियां इस ‘स्टेबिलिटी’ ब्रिगेड को बड़ी पसंद आती हैं.
इन ‘स्टेबिलिटी’ वालों को मैं अच्छी तरह जनता हूँ. इनकी अच्छी बंधी आमदनी होती है, घर होता है, फर्नीचर होता है, फ्रीज होता है, बीमे की पालिसी होती है, ‘वीक एंड’ होता है, बच्चे कान्वेंट में होते हैं.ये इस बीमार आराम की निरंतरता में खलल नहीं चाहते. यही ‘स्टेबिलिटी’ का नारा लगाते रहते हैं.अस्पताल के प्राइवेट वार्ड में पलंग पर एक आदमी पड़ा है, मुलायम गद्दा, तकिया है, कूलर है. उसे फलों का रस पड़े पड़े मिल रहा है, विटामिन मिल जाते हैं, बिस्तर पे ही ‘एनिमा’ लगा दिया जाता है. उसे कहो, “यार, ज़रा बाहर घूम-फिर आओ.” वो कहेगा “नहीं, मुझे ‘स्टेबिलिटी” चाहिए...”
मध्यमवर्ग के इसी वर्ग विरोधाभास का एक और उदहारण अभी हाल फिलहाल देखने को मिला.
मानसून में ठीक पहले हमारी ‘गेट’ वाली कॉलोनी के सामने की सड़क मुनिसिपलिटी वालों ने खोद दी. एक गाँव से हो कर रास्ता आता था उसकी बड़ी दुर्गति हुई, दूसरी तरफ़ का रास्ता कुछ ठीक था मगर वहां भी नाली खोद कर मिट्टी का ढेर लगा विभाग आगे चला गया.
मैं यात्रा पर था, आया तो देखा, गेट के बहार निकल गया, आस पास पूछताछ की, गाँव तक गया वहां कुछ दबंगों ने सड़क पर बड़ा गड्ढा करवा दिया था और तालाब पर चुनाई चल रही थी. पब्लिक वर्क्स डिपार्टमेंट को फ़ोन लगाया तो पता चला की सरपंच ने एक तरफ़ की सड़क रुकवा दी है, थोडा और खोदा तो पता चला की, भारत में सड़क ऊपर की परत खुरच के नहीं बनाई जाती, बस एक परत कोलतार की पुरानी परत पर डाल आगे बढ़ जाते हैं. सड़क इससे ऊंची होती जाती है, और सड़क किनारे घर इससे नीचे, अब अगर सही नालियों का प्रबंध ना हो तो मानसून में गाँव के घरों में पानी. सरपंच चाहता था की सड़क सही तरीके से बने, और मानसून के बाद बने.
कई और कोम्प्लेक्सिटी भी थी, आधी सड़क एक एजेंसी की थी, दुसरे तरह दूसरी, नाली की खुदाई कोई और एजेंसी कर रही थी, और बीच में गाँव की ज़मीन और नाली किस तरफ़ से निकले उसपर विवाद.
मुद्दा ये था की एक तरफ़ की सड़क थोड़ी आसानी से काम चलाऊ हो सकती थी. मैं जनमेला और चुनाव सुधार इत्यादि यात्रा और कार्यक्रमों मेंकाफी घिरा था फिर भी चिट्टी लिखी और कुछ कॉलोनी के साथिओं को बोला की अगर दो चार लोग एजेंसी के दफ्तर हो आएं तो समाधान निकले. स्थिति कुछ साफ़ हो की यहाँ हम भी रहते हैं.
एक साहब छूटते ही "व्हात्सप्प" पर बोले की “सरपंच पर प्रेशर बनाना होगा”, बेतुकी बात थी मगर "व्हात्सप्प" पर क्या बहस करें, जाने दिया.
कुछ दिनों में किसी अख़बार के पत्रकार ने ये खबर कालोनी के एक दो लोगों के नाम से दुःख भरी दास्तान के साथ छापी, स्वाभाविक था की सही स्थिति, सरपंच, एजेंसी आदि का सही चित्रण आज कल के ख़बर बेचने वाले नहीं करते, खैर चलिए अख़बार का एक स्लॉट भरा. तब तक मैं न्यू यॉर्क वापस आ गया था. मैंने फिर बोला के २-३ लोग चले जाएँ आप RWA बनाना चाहते हैं इत्यादि, यही सब तो काम होते हैं, मेरा समर्थन है. तो महाशय बोले की मैं तीन दिन से ट्वीट कर रहा हूँ. अख़बार वाला बोल गया है, मेरी खबर को टैग कर के ट्वीट करते रहो. अख़बार वाले का PR तो समझ गया, मगर हमारा मध्यमवर्गी जिसने कैलिफ़ोर्निया में बैठे ट्विटर तक से गुहार लगा ली, २ घंटे का समय नहीं निकाल पाया की कुछ किलोमीटर दूर रस्ते में पड़ते सरकारी अफ़सर से बात करे.
क्या आज सरकारी सुविधाओं का ये हाल इसीलिए है की आज मध्यमवर्गीय अपने अपने गेट के पीछे बैठ के भौंकता रहता है. गूगल, फेकबुक, ट्विटर और टीवी के मार्केटिंग वालों ने इसी जंगले के पीछे से भौंकने की सुविधा को बड़ा लाभकारी धंधा बना देते है. अब तो भौंकना भी बड़ा मैनेज्ड सा है, बस भौंकना कूल है, देशभक्ति है, लाभकारी है, और कौन सा वाला किसपर भोंकेगा बस उसी हिसाब से उसकी ज़ंजीर खींचिए और सामूहिक मध्यमवर्गी भौंकने का मज़ा लीजिये.
जन मेला के कानपुर चैप्टर के सेमिनार में अरुण जी ने बोला था की जनमेला एक ऐसी अवधारणा है जिसमे कोई कमी नहीं है, मगर इसको इसी माध्यम वर्ग के ड्राइंग रूम में दी गयी सहमति से बाहर निकालना एक बड़ी चीज़ होगी.
माध्यमवर्ग का हाल हमेशा से यही रहा है, पूंजीवादी व्यवस्था जनित ये वर्ग सबसे ज्यादा निचोड़ा जाता है, सबसे ज्यादा असुरक्षित भी यही वर्ग रहा है. ये बड़ी आसानी से हांका जा सकता है, इसीलिए इसको बनाने की होड़ सबसे ज्यादा पूंजीवाद के समर्थक नेताओं में रहती है. बस किसी तरह इसकी ज़मीन ले कर इसको फैक्ट्री में लगा दो, फैक्ट्री विदेशी बाज़ार के माल की हो तो और भी कन्फ्यूज्ड, क्यों बना रहा है, क्या बना रहा है बस इसी उधेड़बुन में लगा गूगल का गुलाम बन कर ट्वीट और सेल्फी पोस्ट करता हुआ जीवन काट देगा.
माध्यम वर्ग चाहे कितना ही ऊपर दिए व्याख्यान जैसा हो, इसकी भी एक भूमिका है, वो है किसी भी देश का युद्ध में इंधन की. ये भी नहीं भूलना चाहिए की युद्ध में सबसे ज्यादा क्षति यही वर्ग झेलता है और क्रांति में भी.
युद्ध में हथियार प्रणाली यही उपजाता है, और इसी से मारा भी जाता है, स्टेटिस्टिक्स बनता है. विश्व में कहीं भी देख लें जितना बड़ा मध्यमवर्ग उतना मज़बूत देश और सेना. मध्यवर्ग खुद शक्ति हीन है, मगर देश की शक्ति का श्रोत है. इसके पास समय नहीं होता है, भागता रहेता है, टैक्स देता है, कर्ज़ा होता है, फ़ी होती है, ठसक भरी मासूमियत होती है.
सही मायनो में विकास का इंजन यही होता है, सर्वहारा वर्ग तो बस इंधन और बाकि मालिक या ड्राईवर. भारत के लिए तो कोम्प्लेक्सिटी तो ये भी है, की मालिक और दुकानदार भी अब विदेशी होते जा रहे हैं और मध्यमवर्गीय बस एक विदेशी मध्यमवर्ग का आउटपोस्ट.
वैश्विक अर्थव्यस्था में भारतीय मध्यमवर्ग को सर्वहारा वर्ग से इतना कटा हुआ देख भविष्य में इनके रगेदे जाने की सम्भावना काफी बढ़ी दिखती है. वैश्विक अर्थव्यस्था आधारित खुले बाज़ार ने पश्चिम से फ्रेंच रेवोलुशन या ऐसे कई "ट्रिगर पॉइंट्स" को बड़ी चतुराई से कई समुन्दर दूर भेज दिया है. अपने मध्यमवर्ग को सर्वहारा वर्ग से हज़ारों मील दूर कर इसके रागेदे जाने की सम्भावना ना के बराबर कर दी है. एक देश से लौह अवयस्क (सिर्फ उदाहरण) छीनो (सोने की चिड़िया टाइप का देश), दुसरे से स्टील बनवाओ(मेहनती किस्म का देश), तीसरे से कारें(जिसके पास इनमे से कुछ ना हो, मगर रोबोटों का शौक़ीन हो), बेस्ट अपने पास मंगवा लो, बाकि इन्ही में कमीशन पर बिकवा दो. पहला अंतर्युध और ज़मीन के मामलों से जूझे, दूसरा प्रदूषण से, तीसरा बस पूँछलग्गे सा घूमे.
इसमें सबसे ज्यादा खतरे में उस देश का मध्यमवर्ग है, जिसका सर्वहारा वर्ग बस टोल गेट के बाहर ही है, और ये सर्वहारा वर्ग ना सिर्फ अपने देश के मध्यमवर्ग का बोझा ढो रहा है, मगर हज़ारों मील और कई समुन्दर दूर बैठे मध्यमवर्ग का महा बोझ भी. और सबसे विचलित कर देने वाली बात ये है की सर्वहारा वर्ग के नेताओं ने अपनी किताबें "अपडेट" नहीं की हुई हैं. आज भी उनका गुस्सा सिर्फ नाक के सामने वाले मध्यमवर्गी पर ही है. ये अपना मध्यमवर्गी जो कई समुन्दर पार के मध्यमवर्गी की सिर्फ एक मनभावन छवि को दूर से गूगल पर देखता है, उसके जैसे दिखना चाहता है, उसके जैसे कॉफ़ी पीना चाहता है, उसके जैसे कार चलाना चाहता है, और तो और बात-चीत, खान पान और गीत भी उसी के गाना चाहता है. वह अपने ही आधार बंधू सर्वहारा को देख मुह बनाता है, मौका लगते ही शोषण करता है और अपनी ही मासूम ठसक में रहता है.
हाल के दंगे (राम रहीम) सोर्स - AP/Altaf Quadri (ABC News)
आज अगर भारत का मध्यमवर्गी अपने सर पर बैठे इस खतरे को नहीं समझेगा तो आज जो सिर्फ हर तरफ़ से बस निचोड़ा जा रहा है वो तो सिर्फ ट्रेलर है, पानी, पर्यावरण, संसाधनों का एक महायुध्ह सामने है, और अमीर देश अपने दरवाज़े बंद कर रहे हैं. संकट सामने है, यकीन ना हो तो शहर की सीमा लाँघ कर देखें.
कैसे देश को इस महायुद्ध से बचाया जाए मैं इसका ज़वाब कुछ समय से ढून्ढ रहा हूँ, आप जानते हों तो ज़रूर कांटेक्ट करें.