प्रदेश सचिव सर्वेश अम्बेडकर (पूर्व राज्यमंत्री) ने आज फूलन देवी जी के जन्मदिवस पर उन्हें सादर नमन करते हुए जानकारी दी कि क्यों उनकी आत्मकथा का हिन्दी में आना जरूरी है, उन्होंने सिद्धार्थ रामू जी के साभार से कुछ अहम तथ्य साझा करते हुए कहा,
फूलन देवी की आत्मकथा का हिंदी में आना क्यों जरूरी है?
फूलन देवी के जन्मदिवस ( 10 अगस्त) पर सादर सलाम!
फूलन देवी की आत्मकथा किन-किन भाषाओं में कब आई?
फूलन देवी ने अपनी आत्मकथा ‘आई, फूलन देवी : दी ऑटोबायोग्राफी ऑफ इंडियाज बैंडिट क्वीन’) शीर्षक से लिखा है। यह आत्मकथा 1 जनवरी 1996 में पहली बार फ्रांसीसी भाषा में प्रकाशित हुआ। इसे फिक्साट ( Fixot ) प्रकाशन ने प्रकाशित किया। फ्रेंच भाषा में इस आत्मकथा में इस 437 पृष्ठ थे।
बाद में अंग्रेजी, जापानी और मलय आदि भाषाओं में प्रकाशित हुई। अंग्रेजी में पहली बार वार्नर बुक्स ने 1997 में प्रकाशित किया। बाद में जापानी और मलय आदि भाषाओं में प्रकाशित हुई।
अंग्रेजी में पहली बार वार्नर बुक्स ने 1997 में प्रकाशित किया। अंग्रेजी में इस लोकप्रियता के आलम यह था कि 1999 में दो बार, 2000 में दो बार रिप्रिंट ( पुनर्प्रकाशन) हुआ। फिर 2001 में दो बार रिप्रिंट हुई। फिर 2007 में रिप्रिंट हुई। फिर 2008 में रिप्रिंट हुई। 2009 में दो बार रिप्रिंट हुई। उसके बाद 2010, 2012, 2013 और 2014 में रिप्रिंट हुई।
जापानी संस्करण भी पहली बार 1 जनवरी 1997 में ‘Moi, Phoolum Devi: Reine Des Bandits’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ।
फूलन देवी की आत्मकथा कैसे लिखी गई, किसने लिखा?
फूलन देवी पूरी तरह निरक्षर थीं। किसी तरह उन्होंने बाद के दिनों में हस्ताक्षर करना सीखा। लेकिन उनकी ऐसी आत्मकथा सामने आई, जो भारतीय जीवन के यथार्थ को ‘गोदान’ और ‘मैला आंचल’ जैसी महान कृतियों से ज्यादा सशक्त अभिव्यक्ति देती है।
भारतीय समाज के बहुस्तरीय यथार्थ को ज्यादा व्यापक रूप में सामने लाती है। हिंदी पट्टी के बुनियादी अन्तर्विरोधों का शायद ही कोई रूप हो जो सामने न आया हो।
प्रश्न यह है कि यह संभव कैसे हुआ। यह तब संभव हुआ जब विदेश (फ्रांस) से फ्रांसीसी टीम आई और उन्हें यह अहसास दिलाया की उनकी जीवन-यात्रा न केवल भारत बल्कि दुनिया के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण है। इसके लिए उस टीम ने उनके भीतर आत्मविश्वास भरा। उनसे कहा कि आप अपनी कथा अपनी बुंदेली बोली-बानी में जैसे आप कहना चाहती हैं, वैसे कहिए। ऐसे कहा जाता है, वैसे कहा जाना चाहिए, इसकी कोई चिंता मत कीजिए। बस आप सबकुछ कहिए। जरूरत पड़ने पर हम कुछ सवाल पूछ लेंगे। वे सवाल विशिष्टता स्थापित करने के लिए नहीं, दबाव बनाने के लिए नहीं। किसी खास दिशा में ले जाने के लिए नहीं। बल्कि उनके जीवन के और उनके अनुभवों के अनछुए पक्षों को सामने लाने के लिए।
टीम ने कहा आप आराम से कहिए। हमें कोई जल्दी नहीं है। हम सुनने में वर्षों लगा सकते हैं। आप जितना समय लेना चाहिए लीजिए। आप एक बार में जितना कह पाहिए उतना ही कहिए। जिस तरह जैसे कहना चाहती हैं कहिए। क्या बनेगा, कैसे बनेगा। इसकी चिंता मत कीजिए। फ्रांसीसी टीम और उसके लेखकों ने धैर्य कई महीनों में यह उनकी आत्मकथा उनसे सुनी। उसे लिपिबद्ध किया। 2000 पेज का दस्तावेज बना। उसे फिर करीब पांच सौ पेजों में संपादित करके प्रस्तुत किया गया। एक-एक शब्द फिर फूलन देवी को सुनाया गया। हर पेज पर उनके हस्ताक्षर लिए गए। फिर दो सालों में फूलन की आत्मकथा तैयार हुई।
दुनिया का कोई लेखक शायद ही ऐसी कृति खुद तैयार कर पाता। क्योंकि लिखने वालों के पास लिखने के हुनर तो था और है, लेकिन वे जीवन और उस जीवन के संघर्ष कहां से लाते जो फूलन के पास ही था। दूसरे शब्दों में फूलन के पास जो कथ्य था, जो पूरा का पूरा उनका अपना था। लेकिन वे उसे साक्षर न होने या लिखने का हुनर न होने के चलते लिपिबद्ध नहीं कर सकती थीं। फूलन के कथ्य को दो लोगों ने जिनके पास लिपिबद्ध करने का हुनर था। लिपिबद्ध कर दिया। अच्छी और जरूरी बात यह कि लिपिबद्ध करने वालों ने यह आत्मकथा मैंने लिखी है, इसका कोई दावा नहीं किया। इस आत्मकथा में उनका नाम सहयोगी के रूप में दर्ज है।
विश्व साहित्य में फूलन देवी की आत्मकथा का स्थान
फूलन की आत्मकथा को पढ़ते हुए मुझे सिर्फ एक किताब याद आई। वह किताब है– विक्टर ह्युगो का उपन्यास ‘ले मिजेरआब्ल’। यह उपन्यास सन् 1862 में प्रकाशित हुआ था, जो हिंदी में ‘विपदा के मारे’ नाम से प्रकाशित हुआ। यह उपन्यास फ्रांस, विशेषकर पेरिस के मेहनतकश गरीबों की जिंदगी को सामने लाता है, जिसे पढ़कर भीतर ऐसी सिहरन होती है कि व्यक्ति भीतर से हिल जाता है।
फूलन की आत्मकथा में जीवन का जो यथार्थ सामने आता है, उसकी तुलना मैं सिर्फ विक्टर ह्युगो के उपन्यास के पात्रों और उसके उस समाज के यथार्थ से कुछ हद तक कर सकता हूं। खासकर उसमें सामने आने वाली कुछ मेहनतकश महिलाओं के दिल दहला देनेवाले जीवन से।
लेकिन ‘विपदा के मारे’ की महिलाएं सिर्फ वर्गीय और लैंगिक शोषण-उत्पीड़न सह रही हैं, वहीं फूलन को वर्गीय और लैंगिक शोषण-उत्पीड़न के साथ जातीय शोषण-उत्पीड़न का भी भयानक तरीके से शिकार होना पड़ता है। फूलन के मामले में तीनों एक साथ मिलकर उनके जीवन को ‘विपदा के मारे’ उपन्यास की महिलाओं से ज्यादा दुष्कर और असहनीय बना देते हैं।
दूसरी बात यह कि वह एक उपन्यास है, जिसमें एक चरित्र में कई चरित्रों का मेल किया जाता है या मेल हो सकता है। लेकिन फूलन की आत्मकथा सौ फीसदी एक ही लड़की जिंदगी की तथ्यपरक सच्ची कहानी है।
फूलन देवी की आत्मकथा और गोदान और मैला आंचल
मैंने अभी तक भारतीय जीवन-यथार्थ के बारे में जो किताबें पढ़ी हैं, उनमें फूलन की आत्मकथा ( आई, फूलन देवी : दी ऑटोबायोग्राफी ऑफ इंडियाज बैंडिट क्वीन’) भारतीय जीवन-यथार्थ को किसी भी किताब की तुलना में कुछ बुनियादी मामलों में ज्यादा समग्रता, संश्लिष्टता और उसकी पूरी जटिलता के साथ अभिव्यक्त करती है। इन किताबों में मैं ‘गोदान’, ‘मैला आंचल’ और ‘जूठन’ को भी शामिल रहा हूं। शायद इसका कारण इसके केंद्र में एक स्त्री का होना है। एक ऐसी स्त्री, जो जाति (मल्लाह) और वर्ग (भूमिहीन मेहनतकश) दोनों रूपों में सबसे शोषित-उत्पीड़ित जाति और वर्ग ही है। इसके साथ ही वह स्त्री है। फूलन की आत्मकथा भारतीय जीवन-यथार्थ (विशेषकर हिंदी पट्टी, उसमें भी बुंदेल खंड) की सभी परतें खोल देती है। अंतर्विरोध के सभी रूप सामने ला देती है।
‘गोदान’ और ‘मैला आंचल’ दोनों में केंद्रीय चरित्र पुरुष और किसान हैं। ये लोग मल्लाह जैसी सेवक जाति के नहीं हैं। मल्लाह जाति और भूमिहीन मेहनकश की बेटी है फूलन। लेकिन वह ‘गोदान’ और ‘मैला आंचल’ के उच्चवर्गीय सवर्णों के वर्चस्व से उसी तरह घिरी हुई है, जैसे होरी और कालीचरण आदि घिरे हुए हैं। दूसरे शब्दों में, दमनकारी शोषक-उत्पीड़क शक्तियां ‘गोदान’ और ‘मैला आंचल’ में से कम ताकतवर नहीं, और न ही उनकी क्रूरता और दमन उनसे कम है। बल्कि कई मामलों में ज्यादा है। लेकिन फूलन इस दमन को सहने वाली और उसका मुकाबला करने वाली एक मेहनतकश निरक्षर स्त्री है। फूलन की आत्मकथा हर उस व्यक्ति को पढ़नी चाहिए, जो भारतीय समाज को समझना और बदलना चाहता हो।
फूलन के सिर्फ 20 वर्ष के जीवनकथा को पढ़कर ऐसा लगता है, जैसे भारतीय समाज का खासकर हिंदी पट्टी का असली क्रूर मर्दवादी, जातिवादी और वर्गीय चरित्र प्रस्तुत कर दिया गया हो।
इस आत्मकथा का हिंदी अनुवाद आना भारतीय समाज को समझने और बदलने की बहुत ही जरूरी है।
साभार - सिद्धार्थ रामू जी