बिहार की बाढ़, सूखे और अकाल पर कुछ लिखने की घृष्टता करना मेरा शौक है, पर आज बड़े बुझे मन से कलम उठा रहा हूं।
बिहार की बाढ़, सूखे और अकाल का इतिहास लिख रहा हूं। राज्य के दूसरे सिंचाई आयोग (1994) में जब कोसी की बाढ़ का जिक्र होता है तब उसमें 1963 के बाद सीधे 1985 की बाढ़ का विवरण दिया गया है। इसका मतलब जो मेरी समझ में आता है कि आयोग की नजर में इन 22 वर्षों में कोसी नदी के साथ कोई उल्लेखनीय घटना नहीं हुई थी।
अब मेरे कूड़ मगज में यह सवाल उठता है कि,
1. कोसी का आज तक का सर्वाधिक 9.13 लाख क्यूसेक का प्रवाह 5 अक्टूबर, 1968 को देखा गया था और पश्चिमी तटबन्ध जमालपुर और उसके आसपास 5 स्थानों पर टूट गया था, इस घटना का जिक्र इस रिपोर्ट में हुआ ही नहीं, क्यों? इसको लेकर लोकसभा तक में बहस हुई थी और इस घटना का उल्लेख इस रिपोर्ट में क्यों दबा दिया गया?
2. 1971 में भटनियां रिंग बांध टूटा और उसके अन्दर बसे दस गांव पूरी तरह से तबाह हुए और जिसकी जांच के लिये विधानसभा की पब्लिक अकाउंट कमेटी गठित करनी पड़ी थी और उसने विभाग की लापरवाही को इस घटना के लिये अपनी रिपोर्ट (1974) में जिम्मेदार ठहराया था। क्या यह घटना इस लायक नहीं थी कि उसके बारे में दो लाइनें लिख दी गयी होतीं।
3. कोसी का पूर्वी तटबन्ध सहरसा जिले के सलखुआ प्रखंड में 121 किलोमीटर पर बहुअरवा गांव में 1980 में टूट गया था, जिसकी जांच विभाग के वरिष्ठ इंजीनियर अब्दुल समद साहब ने की थी। यह घटना भी क्या इस लायक नहीं थी कि उसका जिक्र इस रिपोर्ट में होता?
4. 1984 में सहरसा जिले के ही नवहट्टा प्रखंड के हेमपुर गांव में कोसी का पूर्वी तटबन्ध 5 सितम्बर के दिन टूट गया था जिसकी वजह से नवहट्टा से लेकर कोपड़िया प्रखंड तक तटबन्ध के कन्ट्रीसाइड के गांवों की 70 हजार से अधिक आबादी 1985 के अप्रैल महीने तक बरसात, जाड़ा और गर्मी के बीच खुले आसमान के नीचे रहने को मजबूर हो गयी थी। यह घटना भी इस लायक नहीं थी कि इसको आयोग की रिपोर्ट में जगह मिलती?
मैं यह तथ्य बड़े दुःख के साथ लिख रहा हूं और सिर्फ 1985 के पहले की घटनाओं के बारे में लिख रहा हूं। इन घटनाओं का जिक्र अगर आयोग की रिपोर्ट में नहीं है तो आगे आने वाली इंजीनियरों की जमात को पता ही नहीं होगा कि उन वर्षों में क्या-क्या हुआ था। रिपोर्ट के प्रकाशित होने से पहले यह तटबन्ध डलवा- नेपाल (1963), गंडौल और समानी (1987), जोगिनियां-नेपाल (1991) में भी टूट चुका था।
1991 वाली घटना के बारे में आयोग की रिपोर्ट इतना ही कहती हैं कि उस घटना से कोई नुक़सान नहीं हुआ और उस साइट पर जल संसाधन मंत्री तथा मुख्यमंत्री देखने के लिये गये थे। मेरे लिहाज से यह घटना इतनी बड़ी जरूर थी कि तत्कालीन जल संसाधन मंत्री को अपने पद से त्यागपत्र देना पड़ गया था। यह बात अलग है कि यह त्यागपत्र कभी स्वीकृत नहीं हुआ।
तथ्यों को छिपाना या हलका करके दिखाने से हमें तात्कालिक लाभ जरूर हो सकता है पर भविष्य के लिये अच्छा नहीं है क्योंकि तब जो निर्णय लिये जायेंगे उनकी बुनियाद ही कमजोर होगी या एकदम ही नहीं होगी। उस समय जो निर्णय लेने वाले होंगे उन्हें तथ्यों की जानकारी ही नहीं होगी।
मेरा दु:ख यही है।