उस साल पूरा गांव गंगा नदी के कटाव से परास्त हो गया था। भोजन पर भी आफत थी। सारा कुछ आंखों के सामने अव्यवस्थित हो गया और लगभग पूरे गांव की ही स्थिति दयनीय हो गयी थी। गांव को गंगा धीरे-धीरे काट रही थी और हम लोग असहाय होकर अपनी बरबादी का तमाशा देख रहे थे। उस समय हमारे गांव में 500 के आसपास घर रहे होंगे। अभी भी लगभग 300 घर पुराने मौजमाबाद के यहां हैं। सब कुछ ठीक रहा होता तो परिवार बढ़ने से कम से कम सात-आठ सौ घर यहां जरूर रहते।
एक बार जो कटाव शुरू हुआ तो सभी लोग छिन्न-भिन्न हो गये। कुछ लोग घर-जमीन कट जाने के बाद नारायणपुर बाजार के पास जाकर बस गये। कुछ लोग खगड़िया के सतीश नगर के पास बस गये। सतीश बाबू एक बार 5 दिनों के लिये बिहार के मुख्यमंत्री बन गये थे। उन्हीं के नाम पर उस गांव का नाम सतीश नगर रखा गया था। कुछ परिवार खगड़िया जिले में परबत्ता प्रखंड में एक बेला बस्ती है वहां जाकर बस गये। कुछ लोग अभी भी यहां बचे हुए हैं, जो रेलवे के बांध से कुछ दूरी पर रेल लाइन के दोनों तरफ बस गये हैं। सब कुछ उलट-पलट हो गया। गिनती के करीब 300 घर अभी भी पुराने मौजमाबाद में बचे होंगे।
बसने के लिये जमीन तो हम लोगों को कहीं से मिली नहीं। जिसके पास जितना जुगाड़ था उसके हिसाब से जमीन खरीदते गये और जहां जमीन मिली वहीं बसते गये। कुछ लोग सब छोड़-छाड़ कर बाहर चले गये। कुछ लोग जो किसी तरह से नौकरी पा गये थे वह उधर ही रह गये। कुछ को गांव की सुध आयी तो लौट कर जमीन खरीदी और फिर घर बना कर रहने लगे।
हमारा गांव तो पूरा कट चुका था। कुछ जमीन पर बालू पड़ा और उसे भी नदी कब काट देगी इसका कोई भरोसा नहीं था। किसी तरह कच्चा-पक्का घर बना कर हम लोग बरौनी-कटिहार रेलवे लाइन के उत्तर में अभी रह रहे हैं। नारायणपुर बाजार के पश्चिम में एक सड़क है जिसे 14 नम्बर सड़क कहते हैं। इस सड़क के दक्षिण में गंगा का किनारा है। सावन भादों का महीना आता है तो पानी परेशान करता है। इधर कुछ वर्षों से तो गंगा इलाके को उजाड़ कर चली गयी थी पर वह फिर इधर का रुख़ कर रही है। तब देखिये क्या-क्या होता है। कटाव लग गया तो फिर भागना पड़ेगा।
हम लोगों को सरकार की तरफ से जगह-जमीन या घर वगैरह कभी कुछ मिला नहीं है। अभी भी मुसीबत आयेगी तो उसके लिए फार्म आदि भर कर आवेदन दे रखा है। चक्कर उसमें भी है। हम लोगों का गांव-घर तो नारायणपुर प्रखंड, जिला भागलपुर में पड़ता है और जो कुछ खेत-पथार है वह पड़ता है खगड़िया जिले के परबत्ता प्रखंड में। आधार कार्ड का झमेला है क्योंकि वह तो भागलपुर जिले का है। इसलिये हम बाशिन्दे तो उसी जगह के माने जायेंगे जो आधार कार्ड कहेगा। अब आवेदन तो दे दिया है पर उसका क्या होगा यह तो हम नहीं जानते। सरकारी दफ्तरों में जैसे काम होता है वह तो सभी लोग जानते हैं। सारा नियम-कानून तो वही लोग जानते और बताते हैं।
जब हम लोग साठ के दशक में उजड़े तब एक झटके में सब कुछ खत्म हो गया था। फिर भी शादी-ब्याह, जीना-मरना, नाता-रिश्ता सब कुछ तो निभाना ही पड़ता था। घर-द्वार, खेत-खलिहान सब देखते-देखते चला गया मगर सामाजिक और पारिवारिक काम तो रुकेंगे नहीं। जैसे-तैसे उनको भी निभाना ही पड़ता है। आजकल थोड़ी सहूलियत है कि बाहर जाकर लोग कुछ काम-धाम या नौकरी वगैरह कर लेते हैं तो परिवार में पैसा आ जाता है मगर बीच वाला समय तो बहुत ही बुरा था।
हमारी जमीन तो गंगा में चली ही गयी थी लेकिन चार-पांच साल के बाद जब नदी कुछ पीछे हटी तब उसमें से कुछ-कुछ जमीन जगना शुरू हुई और उस पर खेती का काम, जितना भी मुमकिन था, शुरू हुआ और जीवन चक्र फिर वापस लौटा। फिर भी घर-बार, जमीन-जायदाद जाने का डर तो हर समय बना ही रहता है। इधर नदी का कटाव फिर शुरू हो रहा है।
साठ के दशक में जब हमारा गांव कटा तो नारायणपुर का हाई स्कूल, जयप्रकाश कॉलेज, वहां के अस्पताल का भवन भी धीरे-धीरे कट गया। वह जमीन हमारे गांव के लोगों द्वारा ही सार्वजनिक काम के लिये दी गयी थी, वह सब हमारे गांव के पूर्वजों की जमीन थी। यह सब अब शायद लोगों को पता भी न हो। जब तक गंगा की कृपा थी तब तक हमारा हौसला बुलंद था। अब तो कटाव के कारण सब लोग तितर-बितर हो गये।
श्री हरिश्चंद्र चौधरी