बिहार-बाढ-सूखा-अकाल-1970
1970 में गंडक नदी का उत्तरी तटबन्ध चंपारण जिले के नौतन प्रखंड में 25 अगस्त (मंगलवार) के दिन टूट गया था और उसकी वजह से वहाँ के कई गांवों में अच्छी खासी तबाही हुई थी। इसकी वजह से लगभग 20 हजार की आबादी नदी के पानी से घिर गयी थी और वहाँ पर खड़ी फसल बरबाद हो गयी थी।
विधान पार्षद सुदामा मिसिर ने नौतन और बैरिया प्रखंड के बाढ़ प्रभावित इलाकों का दौरा करने के बाद यह आशंका व्यक्त की कि बाँध में यह दरार सिंचाई विभाग के अधिकारियों की लापरवाही से 25 तारीख को पड़ी। नौतन थाने के डीह भेड़िहारी, पठकौली, मिसिर भेड़िहारी, फुलियाखांड़ और केहरा टोला के पाँच वर्गमील के इलाके पर दरार से निकला पानी फैल गया। इन सभी गाँवों की बाढ़ से रक्षा के लिये गंडक नदी पर तटबन्ध बना हुआ था, जो पानी के दबाव को बर्दाश्त नहीं कर पाने के कारण टूटा।
इन गाँवों के चारों ओर रिंग बाँध भी बना हुआ था और वह भी नहीं बच पाया। यहाँ की फसलें पानी में डूब गयीं और घरों में डाँड़ (कमर) भर पानी भर गया था। लोगों को इन्हीं बचे हुए रिंग बाँध पर शरण लेनी पड़ीं। बहुत से लोग शरण लेने के लिये मुख्य बाँध पर भी चले गये थे।
इस दुर्घटना के बारे में मेरी बातचीत 76 वर्षीय श्री मोहम्मद सलीम, ग्राम नौतन खाप टोला के साथ हुई। उन्होंने जो कुछ मुझे बताया वह उन्हीं के शब्दों में,
"1970 मैं मैं जवान था जब यह बाँध टूटा। आप बता रहे हैं कि यह बाँध टूटा नहीं था ग्रामीणों ने काट दिया था। आप यह बताइये, क्या अपने आप को डुबाने के लिये कोई बाँध काटेगा? केदार पांडे, जो बाद में मुख्यमंत्री बने, यह उन्हीं के क्षेत्र में पड़ता था। उन्होंने ऐसा कहा कि लोगों ने बाँध काट दिया उस पर विश्वास नहीं होता। यहाँ नदी का बाँध उत्तर-दक्षिण दिशा में है। हम लोगों का गाँव उत्तरी बाँध के बाहर पड़ता है। पानी आयेगा इसका अंदाजा तो हमको एकदम नहीं था। एकाएक पानी आया था। हम लोगों की जो समझ थी उसके हिसाब से सब को भरोसा था कि बाँध जब है तो पानी कैसे आ जायेगा? उसमें यह 5-7 गाँव बुरी तरह से प्रभावित हुए थे। नौतन प्रखंड का बाढ़ भेड़िहारी, पटखौली, मिसिर भेड़िहारी और केहरा टोला में डाँड़ बराबर पानी आ गया था, भले ही हम लोग बाँध से करीब 2-3 किलोमीटर के फासले पर थे। गाँव में हमारे गाँव में पानी किरिन डूबने (सूर्यास्त) के बाद आया था।"
"हम लोगों का गाँव नौतन थाने के पास है, वहाँ तक पानी आने में थोड़ी देर लगी। आठ-साढ़े आठ बजे शाम की बात है, ज्यादातर लोग जगे ही हुए थे। वैसे गाँव में तो लोग जल्दी सो जाते हैं। बच्चे वगैरह तो सो चुके होंगे। ऊपर वाले 5 गाँव इस दरार के सामने पड़ गये थे। गाँव के घर जो थे ज्यादातर बाँस-फूस के बने थे। मिट्टी की दीवारों वाले भी घर कुछ लोगों के पास थे, पर किसी भी घर पर खपड़ा-नरिया की छत नहीं थी। झोपड़ पट्टी टाइप गाँव था हमारा। जिसका पक्का भी था उसकी भी छत खपड़ा-नरिया की ही थी। माटी की भीत वाले जो घर थे वह तो पानी के दबाव से भहरा कर गिर गये थे। थाना हमारे गाँव के बगल में था पर वह लोग किस-किस की मदद करते? खुद डरे हुए थे कि कहीं थाने में पानी न घुस आये।"
"नाव की कोई व्यवस्था नहीं थी। नदी के किनारे वाले गाँव में नावें रहती है पर हम लोग तो थोड़ा फासले पर थे, इसलिये हमारे गाँव में नाव नहीं थी। यहाँ के विधान पार्षद सुदामा मिश्र थे, जो हम लोगों का हाल-चाल लेने के लिये आये थे। पर मैंने सुना भर था, उनको देखा नहीं था। बहुत कुछ आश्वासन देकर गये कि घर बनवा देंगे, पुनर्वास दे देंगे वगैरह-वगैरह। हम लोग थोड़ा नदी से दूर पड़ते थे इसलिये हमको तो वैसे भी कुछ मिलने वाला नहीं था। पुनर्वास मिल भी जाता तो खेत तो नहीं मिलता।"
"बाढ़ के पानी से घर तो गया ही, मकई की खेती को भी बहुत नुकसान पहुँचा था। मकई की क्षति सरकार के अनुमान से कहीं अधिक हुई थी। हमारा जो इलाका है वह मकई का बहुत बड़ा क्षेत्र था और आज भी है। जहाँ तक आपकी नजर जायेगी वहाँ तक मकई ही नजर आती है। उस वक्त तो अधिकांश लोग बाँध पर चले गये थे। खाने-पीने का सामान सिर्फ सरकार ही थोड़े बाँटती है, कहाँ-कहाँ से लोग आकर मुसीबत में फंसे लोगों की मदद करते हैं। महीनों से ज्यादा समय तक लोग बाँध पर रह रहे थे, जब तक पानी नहीं निकला तब तक लोग वहीं टिके हुए थे।"
"सरकार की तरफ से दवाई की गोली बँटी थी। बाँस-रस्सी खरीदने के लिये पैसा भी लोगों को मिला था और यह पैसा कैंप लगा कर दिया गया था। कैंप लगने से गड़बड़ी कुछ कम होती है। राशन कुछ दिनों के लिये मिला था पर बाजरे का आटा मिला था। उस समय जब कुछ भी खाने को नहीं बचा था तब बाजरा का आटा सबने खाया था, पर इस समय दीजियेगा तो कौन खायेगा। उस समय कोटा में भी बाजरा मिलने लगा था। जानवर सब बाँध पर भी थे और जिन लोगों ने पानी के डर से जानवरों को खोल कर छोड़ दिया था उन्हें बहुत से जानवर बह कर कहाँ चले गये उनका पता नहीं लगा पर नीचे के गाँवों में अगर किसी ने पकड़ कर रख लिया था तो उनके पास से बहुत से जानवर वापस भी मिल गये थे। इतनी भलमनसाहत उन दिनों थी। जिसके पास जो भी चारा था वह खिलाकर जानवरों को बचा लिया और जिसका था उसे लौटा दिया।"
"जाड़ा आने तक सब का घर बन नहीं पाया था। जिसके पास पैसा-कौड़ी था, उसने तो अपना इन्तजाम कर लिया मगर जो सरकार के भरोसे था। उसको दिक्कत आयी। पोरा (पुआल) का बिछावन तो बन जाता था पर ओढ़ने की दिक्कत थी। नाते-रिश्ते वालों ने बहुत मदद की थी। किसी को कहीं से मिल गया तो ठीक है वरना बहुत से लोगों का ओढ़ना तो प्लास्टिक या चटाई जैसी चीजें थी। बाँस-फूस का जिसका घर नहीं बन पाया वह लोग स्कूल मैं शरण लेने के लिये आ गये। हमारे गाँव का स्कूल बड़ा था और वहाँ काफी लोग आ गये थे। पानी जब हट गया तब बाँध बनने का काम शुरू हुआ।"
"उसके बाद तो बाढ़ यहाँ हर साल आती है मगर वैसी तोड़-फोड़ वाली बाढ़ कभी नहीं आयी। अब तो जो बाढ़ है वह तटबन्धों के भीतर वाले गाँव को भोगनी ही पड़ती है। जो लोग लापता हो गये थे वह तो बहुत दिन बाद घर वापस आये। बाढ़ के पानी में कुछ लोग जरूर फँसे पर कुछ लोग ऐसे भी थे जो पानी देख कर डर के मारे भागे कि निकल जाने से कम से कम जान तो बचेगी। ऐसे लोगों को लौटने में देर लगी थी। औरतों के बारे में सुनते थे कि कुछ औरतें बह गयी थीं और उनमें से कइयों की गोद में बच्चे भी थे। मगर कितनी और कौन यह अब याद नहीं है।"
"हमारे गाँव खेतों पर बालू पड़ गया था और बहुत सब बालू तो लोग घर भरने के लिये उन्हीं खेतों से ले आये थे। उन खेतों में कई साल तक ककड़ी-खरबूजा बोया गया। हमारा घर भी पानी में फंसा था। बनाने-खाने की कोई जगह घर में नहीं बची थी। मटी की डेहरी थी वह बैठ गयी, गुड़ होता था जिसके पास वह भी खत्म हो गया। हम लोग बाँध पर नहीं गये, बगल में सड़क पर चले आये थे। गाँव में एक मस्जिद थी लेकिन वह बहुत छोटी थी उसमें ज्यादा लोग नहीं आ सकते थे। हमारा बाँस-फूस का चार खोली का घर था, जिसमें एक में माल-मवेशी रहते थे। ज्यादा बड़ा परिवार नहीं था इसलिये हम लोग सम्हल गये। बड़े परिवार वालों को तो बहुत परेशानी हुई थी।"
श्री मुहम्मद सलीम