MMITGM : (27)
भगवान शिव से-हे भोलेनाथ! विश्व भर में पर्वतों के विभिन्न स्वरूपों को धारण करने वाले आप हैं. जैसे मानव शरीर में हृदय रक्त मस्तिष्क को पहुंचाता है, उसी तरह पृथ्वी अपने हृदयस्थ भूजल को आपके मस्तिष्क रूप पहाड़ के शिखर, हिमालय की चोटी पर अपने जल की स्थैतिक उर्जा को बढ़ाने के लिये आपको अर्पण करती है. आप पर पृथ्वी द्वारा समर्पित यह जल, प्रसाद-रूप से, ऑक्सीजन से लबालब भरा हुआ, विभिन्न नदियों का रूप लिए, अपने स्थैतिक ऊर्जा को गतिज-ऊर्जा में रूपांतरित करते हुए जीव-जगत का प्राणाधार बनता है. आपके मस्तिष्क के सबसे उपरीभाग से प्रस्फुटित भूजल जो अधिकतम स्थैतिक ऊर्जा से समाविष्ट रहते हैं तथा 15-16 पी.पी.एम. तक ऑक्सीजन रखते और विभिन्न गुणों से समाविष्ट हुयी भारत-भूमि में विभिन्न नदियों को समेटते मातेश्वरी-गंगा के नाम से भारत के जन-जन के श्वास-स्वरूप हृदयस्थ रहती है. हे भोलेनाथ! आपकी यह स्थैतिक-ऊर्जा ही संसार की गतिज-ऊर्जा को प्रतिष्ठित करती है. अतः जगत के मूलाधार आप को प्रणाम है.
MMITGM : (28)
भगवान शिव से-हे भोलेनाथ! गंगा, यमुना, सोन आदि अनेक नदियाँ आपके विशाल शिवलिंग, हिमालय में अगल-बगल की स्थिति से ही भूजल के प्रस्फुटन से विभिन्न ऊँचाइयों पर अवतरित हो रही हैं. इन समस्त नदियों के जल का रंग, स्वाद और रासायनिक गुण सब एक जैसे क्यों नहीं हैं? ये नदियाँ चहुँमुखी अर्थात विभिन्न दिशाओं में क्यों प्रवाहित होती आ रही हैं? इनके गुणों में अन्तर क्यों हैं? क्या इन जलों की शक्तियों की विभिन्नता इसलिये होती है क्योंकि ये पृथ्वी के तल से बेसिन के विभिन्न भागों से आती हैं? क्या ये नदियाँ बेसिन के उसी भाग में प्रवाहित होती हैं, जिनके भीतरी जल से नदी प्रस्फुटित हुई है? इस गम्भीर नदी के चारित्रिक गुण के तहत पृथ्वी पर विश्व के समस्त देशों के लोगों, पशुपक्षियों, वहाँ की समस्त सभ्यता-संस्कृति के बदलाव का तकनीकी आप का खेल है क्या? अतः लगता है भोलेनाथ! आपका पहाड़-रूपी-शिवलिंग जल के अन्तःप्रवाह को बाह्य-प्रवाह में रूपांतरित करते हुए ही जीव-जगत का सूक्ष्मता से संचालन करता है.