आज बाढ़ राहत फिर चर्चा में है। किसे मिली, कितनी मिली, कहाँ गलत आदमी को मिली और कहाँ सही आदमी छूट गया जैसे समाचार सुर्ख़ियों में हैं। आज़ादी के पहले अंग्रेजों के समय में मिलने वाली रिलीफ का क्या स्वरुप होता था उस पर फिर कभी चर्चा करेंगें। आज़ादी के बाद के शुरुआती वर्षों में बिहार में 1948 में बाढ़, 1950-51-52 में सूखा और उसके बाद 1953, 1954 और 1955,1956 में बाढ़ लगातार आयी। आज़ाद भारत में नयी हुकूमत थी इसलिये रिलीफ बटनी ही थी सो बंटी।
पिछले कई वर्षों से इस तरह की विपत्तियों का सामना राज्य को करना पड़ रहा था और रिलीफ न बांटनी पड़े ऐसी कोई व्यवस्था नहीं हो पायी थी। विधानसभा में विधायक गदाधर सिंह ने सरकार को बताया कि, "सरकार रिलीफ बाँट कर वाहवाही लेना चाहती है। लेकिन मैं कहूँगा कि सरकार इसको बंद करके परमानेंट रिलीफ का इन्तजाम करे ताकि आगे भुखमरी न हो सके। मुझे यह कहते हुए दुःख होता है कि हमारे समाज में (लोग) बिना कमाए पैसा लेना पाप समझते हैं लेकिन आज बड़े आदमी जो 20-25 बीघा ज़मीन रखने वाले हैं वे भी सरकार से पैसा लेने में ख़ुशी जाहिर करते हैं और पैसा लेने के लिए पैरवी करते हैं। ऐसा मालूम होता है कि इस रिलीफ के जरिये लोगों का नैतिक पतन हो रहा है और आने वाली संतति के लिए यह एक बहुत खतरनाक चीज़ है।"
1955 की बाढ़ का असर अभी ख़तम भी नहीं हुआ था कि 1956 में एक बार फिर बाढ़ आ गयी। तब तक रिलीफ का बंटना अपनी धार पकड़ चुका था। विधानसभा में रिलीफ पर बहस चल रही थी और आम-तौर पर सदस्यों को शिकायत थी कि आज़ादी के 9 वर्ष बीत गये हैं और सरकार अभी भी रिलीफ बांट रही है। अब तक तो लोगों को इतना सक्षम बना दिया जाना चाहिये था कि वो अपने पैरों पर खड़े हो जाते और उन्हें बाहरी मदद की जरूरत ही नहीं पड़ती। पिछले वर्षों में रिलीफ बाँटते बाँटते सरकार अपने ही जाल में फंसने लगी थी।
राम बिनोद सिंह (शायद वो राघोपुर से विधायक थे) का कहना था, "ऐसे तो रिलीफ बांटने का सिद्धांत ही गलत है क्योंकि इसके चलते सारी जमात भीखमंगों की जमात बन जाती है। जो लोग अपने पैरों पर खड़ा हो सकते थे वे लोग भी ऐसा नहीं करते हैं और उन लोगों की आदत ऐसी हो जाती है कि अगर रिलीफ आने में ज़रा सी भी देरी हुई तो बहुत ही चिल्ल-पों करने लगते हैं। सरकार खुश होती है तो रिलीफ बंटवा देती है। कोई देखने वाला नहीं है और दिनोदिन लोगों में असंतोष बढ़ता जा रहा है। रिलीफ का रुपया कुछ कर्मचारी की जेब में, कुछ पेशकार की जेब में, कुछ अफसर के पॉकेट में और रहा-सहा गाँव के दलाल के पेट में चला जाता है। नाम मात्र को ही असली आदमी को रिलीफ का रूपया मिलता है।"
यह हमारे यहाँ आज़ादी के बाद बाढ़ से निपटने का प्रारम्भिक काल था और यहीं से रिलीफ की शुरुआत हुई मगर कुछ लोग इसका स्थायी समाधान चाहते थे जो आज तक नहीं हो पाया। आज रिलीफ बाढ़, सुखाड़ या किसी भी प्राकृतिक या अप्राकृतिक विपदा से निपटने का पीड़ित के लिए अधिकार बन चुकी है।
इसके दो फायदे हैं। एक तो विपदा पीड़ित को सरकार या एनजीओ की तरफ से अनुदान मिलता है वो उसका अधिकार बन चुका है और इस अधिकार के तहत अगर उसे अनुदान मिल जाता है तो फिर उसे सरकार या एनजीओ से कोई शिकायत नहीं रह जाती बल्कि वह सरकार या एनजीओ का कृतज्ञ हो जाता है। दूसरा फायदा पीड़ित को न होकर एनजीओ, सरकार और सत्ताधारी दल को होता है क्योंकि अधिकार के अनुरूप रिलीफ बाँट देने के बाद वह किसी भी आलोचना या शिकायत से मुक्त हो जाती है। एनजीओ को कालान्तर में अधिक संसाधन जुटा पाने का मार्ग प्रशस्त होता है। यह एक ऐसी सेटिंग है जिसमे हर पक्ष प्रसन्न रहता है। अब तो किसी में यह कहने का साहस भी नहीं बचा है जो यह याद दिला सके कि समस्या का स्थायी समाधान होना चाहिये और यह कि रिलीफ विपत्ति ग्रस्त लोगों को पराश्रित बनाती है।
रामबृक्ष बेनीपुरी ने सरकार पर लांछन लगाया कि, "आपको लोगों की तबाही का तमाशा देखने में मज़ा मिलता है और आपको उन लोगों के बीच रिलीफ बांटने में भी मजा मिलता है। आज 9 वर्षों से आपका यही तमाशा जारी रहा है।"
रिलीफ बांटने का आज का साल नवां नहीं, चौहत्तरवां साल है। स्थायी समाधान नहीं हुआ और न होने के आसार दिखाई पड़ रहे हैं। रिलीफ बंटेगी, थोड़ा सब्र करें। चुनाव पास हैं, उसके पहले तक जरूर मिल जायेगी।