बिहार-बाढ़-सूखा-अकाल
शिवेंद्र शरण, ग्राम प्रताप पुर, प्रखण्ड और जिला जमुई से हुई मेरी बातचीत के कुछ अंश।
94 वर्षीय श्री शिवेंद्र शरण जी स्वतंत्रता सेनानी हैं मगर उन्होनें जेल केवल ग्यारह दिनों की ही काटी। उनका ज़्यादातर समय फ़रारी में ही बीता। उनके पिताजी जरूर आज़ादी की लड़ाई में साढ़े सात जेल में रहे। उन्होनें मुझे जमुई शहर और स्टेशन के बीच एक 930 फुट लम्बे पुल के 1949 में किउल नदी की बाढ़ में बह जाने और इस पुल के टूटने की परिस्थितियों और बाद की घटनाओं के बारे में बताया। पूरा विवरण उन्हीं के शब्दों में।
यह घटना 1949-50 की है। जमुई शहर और स्टेशन के बीच करीब सात किलोमीटर का फासला है और उसी के बीच से किउल नदी सड़क को पार करती है। उस साल जुलाई के महीने में ही अचानक बहुत बारिश हुई थी और यह बारिश नदी के ऊपरी जल-ग्रहण क्षेत्र में भी लगातार कई दिनों तक होती रही थी। स्थानीय वर्षा तो थी ही। ऐसी बारिश लोगों की याददाश्त में कभी हुई ही नहीं थी। ऊपर से आये पानी और यहाँ के पानी ने मिल कर जमुई में भारी तबाही मचायी और नदी पुल के एक बड़े हिस्से को बहा कर अपने साथ ले गयी। उन दिनों बाढ़ की चेतावनी देने की कोई व्यवस्था तो कोई थी नहीं। जो भी करना था वह लोगों को अपने स्तर पर ही करना था। उस बाढ़ में कितनी बस्तियाँ बह गईं और लोग-बाग अपना घर छोड़ कर जान बचा कर भाग गये। मेरा अपना गाँव प्रतापपुर, जो यहाँ से दस किलोमीटर नीचे इसी नदी के किनारे पर है, पानी से घिर गया था। इतना ही नहीं उसके रास्ते में पड़ने वाले सिसरिया, गारु नवादा, बिहारी, सतगावां, खैरवा, दौलतपुर, रजपुरा, लखनपुर, लखापुर आदि सारे गाँवों में पानी भर गया और जिसको जहाँ शरण मिली वह वहीं चला गया।
जमुई के इस पुल के नीचे जमुई सब-डिवीज़न की ग्यारह छोटी-बड़ी नदियाँ इस नदी में मिल जाती हैं। यह नदियाँ भी उस समय बेतरह उफान पर थीं और तबाही में अपना हिस्सा बटा रही थीं। आगे चल कर हरोहर नदी इससे मिलती है और उसके बाद यह नदी सूर्यगढ़ा के पास गंगा में मिल जाती है। इसके रास्ते में जो कुछ भी पड़ा उसे इस नदी ने तबाह किया। कुल मिला कर पचास से ज़्यादा गाँवों में नदी का पानी प्रवेश कर गया था। पानी तो जमुई शहर में भी घुसा था पर थोड़ा दूर होने के कारण शहर में उतनी तबाही नहीं हुई।
पुल के टूट जाने से जमुई शहर और स्टेशन का सम्पर्क टूट गया। तब स्टेशन से नदी तक और नदी से शहर तक टमटम चलने लगी थी और नदी को नाव से पार करना पड़ता था। इस पुल को बनाने में समय लगा और जब तक इस पुल का काम पूरा नहीं हुआ तब तक स्टेशन आने-जाने में बड़ी तकलीफ होती थी। रात में टमटम चलना बन्द हो जाता था। तब जो रात में गाड़ी पकड़ने वाले यात्री होते थे उन्हें शाम को ही स्टेशन आ जाना पड़ता था और जो रात में उतरते थे वह स्टेशन पर ही रुक जाया करते थे। बाद में इस पुल को दुबारा बनाया गया था जिसका उदघाटन डॉ श्रीकृष्ण सिंह ने किया था जिस कार्यक्रम में मैं भी शामिल हुआ था।
श्री शिवेंद्र शरण