बिहार-बाढ़-सुखाड़-अकाल
श्री रमेश झा, 93 वर्ष, ग्राम बेला गोठ, प्रखंड सुपौल सदर, जिला सुपौल से मेरी बातचीत के कुछ अंश- जेल तो तटबन्धों के भीतर रहने वालों को हुई है।
हमारा यह मूल गाँव आजकल कोसी के दोनों तटबन्धों के बीच में स्थित है। मेरी उम्र 93 वर्ष है और मैं कोसी परियोजना के पुनर्वास विभाग में काम करता था। सर्टिफिकेट के अनुसार मेरी आयु 83 वर्ष है और मैं 1995 में सेवा निवृत्त हो गया था।
मैं यहाँ उस समय की बात कर रहा हूं, जब यह तटबन्ध बने नहीं थे। बराज भी नहीं बना था। इन दोनों का निर्माण 1963 में डिजाइन के मुताबिक पूरा कर लिया गया था। कोसी तब स्वतंत्र भाव से हमारे क्षेत्र में विचरण करती थी। मुझे यह कहने में कोई परेशानी नहीं है कि उन दिनों जब यह तटबन्ध और बराज नहीं बने थे तब तक यहाँ के लोग बहुत सुखी थे। नदी का पानी फैलता जरूर था मगर टिकता नहीं था। वह आता था और चला जाता था। बारिश गयी और काम खत्म। लोग प्रसन्न थे, उपज अच्छी हो जाती थी पर बीमारी से लोग जरूर ग्रसित होते थे। कालाजार और मलेरिया का प्रकोप अक्सर हुआ करता था। कभी-कभी हैजा या चेचक महामारी के तौर पर फैलता था। डॉक्टर तो थे नहीं, वैद्य थे। वही लोग मरीजों का उपचार करते थे। वह लोग जड़ी-बूटियों को कूट-कूट कर, उबाल कर या सुखा कर आयुर्वेदिक दवा बनाते थे और पथ्य-परहेज बता कर मरीजों को देते थे।
नदी द्वारा खेतों का कटाव इतना नहीं होता था। नदी के पानी के रास्ते में कोई रुकावट नहीं थी तो इतना कटाव कहाँ से होता? बराज और तटबन्ध बन जाने के बाद, हो सकता है, बाहर के नदी के कन्ट्रीसाइड के लोग सुखी हो गये हों मगर तटबन्ध के बीच रहने वाले तो कैदी हो गये। आजकल तटबन्ध के अन्दर फिर से एक जोड़ा तटबन्ध बन रहा है जिसे विभाग के लोग सुरक्षा बाँध कहते हैं। अगर यह सुरक्षा बाँध है तो पहले वाला बाँध क्या था? क्या वह सुरक्षा बाँध नहीं था? यही बनाना था तो पहले वाले बाँध को क्यों बनाया? बाहर के लोग भी सुरक्षित थोड़े ही हैं। अपने निर्माण के बाद कोसी के तटबन्ध आठ बार टूट चुके हैं और नदी का पानी उन्हीं बाहर वाले लोगों के ऊपर से गया न? सुरक्षित तो वह भी नहीं है। हम लोग दोनों तटबन्धों के बीच में हैं तो हमें मालूम है कि हमारा बरसात में क्या होने वाला है। तटबन्ध के कन्ट्रीसाइड वालों को तो यह भी पता नहीं है कि नदी उनके साथ क्या व्यवहार करने वाली हैं।
कृषि के अलावा हम लोग जानवर बहुत पालते थे। दूध, दही, घी आदि की कोई कमी नहीं थी और मछली का भी कोई अभाव नहीं था। नदी के पानी से घर कटता था लेकिन उतना नहीं जितना बताया जाता है। घर कटना शुरू हुआ 1968 के बाद। तब से अब तक हमारा घर पाँच बार कट चुका है। उसके पहले मेरी याददाश्त में यह कभी नहीं कटा था। बराज बनने के बाद जब नदी की धारा बंध गयी तब हम लोगों की परेशानी बढ़ी क्योंकि अब सारा का सारा पानी नदी के दोनों तटबन्धों के बीच में ही बहने लगा था। उसके फैलने की प्रक्रिया में बाधा पड़ चुकी थी। जब तक बराज नहीं बना था और तटबन्ध का काम चल रहा था उस समय सरकार की तरफ से जितना तटबन्ध बन चुका था उस पर बरसात के मौसम में अस्थायी झोपड़ियां बना दी जाती थीं ताकि बरसात के मौसम में जो वहाँ जाकर रहना चाहे रह सकता था। बहुत से लोग तीन-चार महीने वहीं बिताते थे फिर अपने गाँव में वापस चले आते थे। तटबन्ध का निर्माण यहाँ काफी तेजी से हुआ था। अगर उस में देरी होती और नदी का प्रकोप पहले जैसा रहा होता तो हमारा गाँव जरूर नदी के पूरब चला गया होता।
बाजार करने हम लोग सुपौल आते थे। लगभग सब के पास नाव थी। आने-जाने के लिये बरसात में भी कोई दिक्कत ही नहीं थी। दवा-दारु के अलावा कोई तकलीफ नहीं थी। हमारी जरूरतें कम थीं। गमछा बिछा कर कहीं सो गये। न किसी की भवें तनती थीं और न हम को कोई फर्क पड़ता था। हम तो कहेंगे कि सिर्फ आज जैसे दवा-दारु का इन्तजाम हो गया होता तो हम लोगों को तब भी कोई तकलीफ नहीं थी।
मैंने राजेंद्र बाबू का भाषण बैरिया मंच में 1955 में सुना था। उन्होंने तटबन्धों के बीच रहने वालों को संदेश दिया था कि हमारी एक आँख पूरे देश पर रहेगी तो दूसरी आँख तटबन्ध के अन्दर रहने वालों पर रहेगी। अब तो लगता है कि सरकार की दोनों आँखें फूट गयी हैं। उस वक्त कहा जाता था कि कोसी बहुत तंग करने वाली नदी है, शोक है बिहार का। इसे तटबन्ध बना कर जेल में डाल देंगे। लेकिन कोसी को कहाँ जेल हुई? वह तो तटबन्धों के अन्दर अभी भी वही काम कर रही है जो वह कैद होने के पहले किया करती थी। जेल तो तटबन्धों के बीच रहने वालों को हुई है। हमारा सारा सुख चला गया। हम पहले स्वतंत्र थे अब परतंत्र हो गये हैं।
श्री रमेश झा