जब बूढ़ी गंडक और गंगा का पानी एक साथ बढ़ा तब पानी की निकासी थम गयी और गंगा तथा बूढ़ी गंडक नदी का पानी रेल लाइन के दक्षिण वाले इलाके में भर गया। हमारी तरफ रेल लाइन के उत्तर में तब तक स्थिति लगभग सामान्य थी। जब उस पार पानी घर-घर में घुसना शुरू हुआ और वहाँ कहीं घुटने भर, कहीं कमर भर और कहीं छाती भर पानी हो गया तो रेल लाइन के दक्षिण वाले इलाके में भगदड़ मच गयी और वह सभी लोग जैसे-तैसे अपना जरूरी सामान लेकर लाइन पार करके हम लोगों की तरफ आने लगे और इधर शायद ही कोई ऐसा घर बचा हो जिसमें एक-दो परिवार शरण न लिये हुए हों। बाढ़ का पानी कम से कम 12-13 दिन जरूर रहा होगा। हमारे घर में भी एक अध्यापक जगदीश बाबू, जो स्थानीय पी.डब्ल्यू. स्कूल में पढ़ाते थे, का परिवार रहने के लिए आ गया था।
गंगा और बूढ़ी गंडक का मिला-जुला पानी शहर में भरा हुआ था और बहुत से लोग मिट्टी के घड़ों या केले के खम्भों की नाव बना कर जान बचा कर भागे थे। उस समय नगर सुरक्षा का, जहाँ तक मुझे याद है, कोई बाँध नहीं था और अगर रहा भी हो तो उसका कोई मतलब नहीं था। दिखाई पड़ने जैसा बांध तो बाद में बनाया गया था। थाने से जो सीधे बाजार की तरफ जाते हैं तो नदी के किनारे एक सीढ़ी घाट है उसी के माध्यम से सब का आना जाना होता था। जब नदी में पानी कम होता था तब लोग उसे पैदल पार कर लेते थे वरना वहीं मटका या केले के खम्भों का पटरा ही काम आता था। घाट पर छोटी सी नाव भी रहती थी, वह भी काम आती थी।
किसी के मरने की कोई खबर नहीं थी और सरकार की तरफ से क्या मदद मिली यह भी मुझे याद नहीं है। उन दिनों नदी पर बाँध नहीं था और बाढ़ का स्वरूप भी आज ऐसा भयंकर नहीं होता था। पानी फैल जाता था। जिसकी जमीन थोड़ी ऊपर होती थी वह खरीफ की खेती कर लेता था और मकई और धान आदि की कटिया करके सड़क पर ही दौनी-ओसौनी हो जाती थी। सड़क पर भी गाड़ी-घोड़ा का उतना प्रचलन नहीं था। वहीं से अनाज घर पर चला जाता था।
हम लोग जहाँ हैं, वहाँ से रेल लाइन के पार बाजार है और उसके बाद गंगा का दियारा पड़ता है। दियारे वाले लोग बाढ़ का मुकाबला करने के आदी होते हैं और वहाँ अमूमन रबी की ज़बरदस्त खेती करते हैं। वह लोग जानते हैं कि उनके यहाँ बाढ़ आनी ही है तो रहने के लिये पहले से मचान बना लेते हैं और पूरी तैयारी के साथ बरसात में रहते हैं। उनके जानवर भी ऊँची जगहों पर बांधे जाते हैं।
श्री गजेंद्र नारायण झा