बिहार में बाढ़-सूखा-अकाल -1971
अस्थिर सरकार-राजनीतिक महत्वाकांक्षा, बाढ़ राहत पर सवाल-राज्य की स्थिति। द इंडियन नेशन - पटना का सम्पादकीय-4अगस्त, 1971
1971 की इस बाढ़ के दौरान जहाँ लगभग पूरे उत्तर बिहार में इतनी तबाही मची हुई थी, वही एक राजनीतिक ड्रामा भी राज्य में चल रहा था। 2 जून के दिन राज्य में सरदार हरिहर सिंह की सरकार का पतन हो गया और भोला पासवान शास्त्री नये मुख्यमंत्री बने (भोला पासवान शास्त्री 2 मार्च, 1968 तथा 2 जून, 1971 के बीच तीन बार बिहार के मुख्यमंत्री बन चुके थे)।
राज्य में बाढ़ से राहत के लिये संसाधन जुटाने के लिहाज से बहुत से मंत्री दिल्ली की यात्रा कर रहे थे। जाहिर तौर पर इनका उद्देश्य संसाधनों का जुगाड़ करना था लेकिन अन्दरूनी चाहत यह थी कि नये मंत्रिमंडल में उनके अपने आदमियों को जगह मिल जाये। उस समय इंदिरा गाँधी प्रधानमंत्री थी और इस तरह की सिफारिश पहुँचाने वाले लोगों को वह याद दिलाती थी कि इस समय बिहार की स्थिति बाढ़ की वजह से ठीक नहीं है इसलिये नये मंत्री उन परिस्थितियों का कैसे सामना कर पायेंगे, यह प्रश्न बना हुआ था।
नए मंत्रियों की नियुक्ति को राज्य और केंद्र सरकार को बाढ़ के बहाने टालने का रास्ता मिल रहा था। बिहार में मंत्रिमंडल का गठन अगर सहज रहा होता तो प्रधानमंत्री इस प्रक्रिया को टालती नहीं। मंत्रियों का अपनी जिम्मेवारी के साथ इस अभूतपूर्व बाढ़ के समय पद पर रहना प्रशासन के लिये लाभदायक ही होता लेकिन पारस्परिक अन्तर्विरोधों के कारण सरकार गिरती नहीं तो सत्ताधारी पार्टी की आपसी ख़राश तो निश्चित रूप से खुल कर सामने आ जाती। शायद इसलिये प्रधानमंत्री ने बिहार मंत्रिमंडल का विस्तार टाल दिया।
इंडियन नेशन-पटना अपने 4 अगस्त के सम्पादकीय में A Calamity (एक विपदा) शीर्षक से लिखता है,
"इसका यह मतलब यह हरगिज़ नहीं है कि बिहार में बाढ़ ने ऐसी परिस्थिति की सृष्टि नहीं की है जिसमें एक पूर्णकालिक मंत्री की आवश्यकता न हो। पिछले 10 वर्षों में ऐसा कभी भी नहीं हुआ कि राज्य में एक करोड़ लोग बाढ़ से प्रभावित हुए हों और उत्तर तथा दक्षिण बिहार मिला कर के जमीन का अधिकांश भाग प्रभावित हो गया हो जिससे प्रलय का दृश्य दिखाई पड़ता है। उत्तर बिहार की नदियाँ तो अभी भी उफन रही है, पानी भी बरस ही रहा है और यह कोई नहीं जानता कि राज्य के भविष्य में क्या लिखा हुआ है। किसान धान की फसल की उम्मीद से पूरी तरह मायूस हो चुके हैं। जमीन को सूखने में हफ्तों का समय लग जायेगा। रबी की फसल पहले ही बरबाद हो चुकी है और जो कुछ भी अनाज लोगों ने अपनी झोपड़ियों में बचा कर रखा था वह इस बाढ़ में बह गया था। यदि केंद्र सरकार तथा दूसरी संस्थाएं मदद के हाथ आगे नहीं बढ़ाती हैं तब राज्य में अकाल अवश्यम्भावी है। यहाँ की जो स्थिति है वह 1967 के सूखे से बदतर है। हमारी राय में बिहार सरकार ने इस विपत्ति के परिमाण को हल्का कर के देखा है और इसकी क्षति को केवल 18 करोड़ रुपये ही बताया है।
असली सवाल यह है कि बिहार सरकार इस बाढ़ की स्थिति का मुकाबला, चाहे वह अपने संसाधनों से हो या केंद्र से मिले हुए पैसे से हो, किस तरह से करने जा रही है? हम समझते हैं कि इस काम में बाहर से भी संस्थाएं काम करने के लिये आ जायेंगी अगर राज्य सरकार उनको सही तरीके से समझा बुझा कर के राजी कर ले। इस बात से तो किसी को भी ऐतराज नहीं होगा कि पहला काम तो यह है कि इस समय जो लोग डूब जाने की स्थिति में हैं उन बाढ़ पीड़ितों को तुरन्त बचाया जाए और उनके आश्रय, भोजन तथा दवा-दारू का इन्तजाम किया जाये। हमें यह बात बहुत व्यथित करती है कि जो लोग छतों या पेड़ों के ऊपर टंगे हुए थे और उनको बचाने के लिये नावों की जरूरत थी वह नावे उनको नहीं भेजी गईं।
बहुत से लोग तो यूं ही मर जाएंगे अगर उनको सुरक्षित निकालने और उन्हें राहत देने में बेजा समय लग जाये। जब बाढ़ का प्रकोप घटेगा तब उस समय लोगों के स्वास्थ की समस्या और साफ-सफाई का मसला उठेगा। यहाँ मिल रही रिपोर्टों के अनुसार शाहाबाद जिले में एक गाँव में हैजे की बीमारी का सूत्रपात हो गया है और एक व्यक्ति के मारे जाने की भी खबर है। अगर इसको रोका नहीं गया तो अन्य क्षेत्रों में भी यह बीमारी महामारी के तौर पर पूरे राज्य में फैल सकती है और तब बाढ़ प्रभावित और गैर-बाढ़ प्रभावित क्षेत्र का भेद मिट जायेगा। हम जानते हैं कि सरकार के पास एक विभाग है जो यह जानता है कि बाढ़ से कैसे निपटा जाय। परन्तु क्या वह विभाग यह भी जानता है कि प्रलय से कैसे निपटा जाता है?
सिर्फ रिलीफ बाँट कर सरकार बाढ़ की समस्या का समाधान नहीं कर सकती है। असली काम तो राज्य की ध्वस्त आर्थिक व्यवस्था को वापस ढर्रे पर लाना है। इसका मतलब है कि किसानों को वह हर सम्भव सहायता देना होगा कि वह सब्जियाँ उगा सकें, अगहनी और रबी के बीच में कोई दूसरी फसल उगा सकें। अगर सरकार मदद करें तो बहुत सी जगहों पर अभी भी अगहनी फसल बचाई जा सकती है। जहाँ धान रोपा जा चुका है और जल-जमाव भी बहुत नहीं है। जिस बात पर हम जोर देना चाहते हैं वह यह है कि सरकार किसानों को खुद अपने पैरों पर खड़ा होने की ताकत हासिल करने में मदद करें। किसी में मुफ्त राहत पर निर्भर रहने की आदत डालना राज्य के हित में अच्छा नहीं होगा। बहुत सी सड़कें टूट फूट गयी हैं और उनकी मरम्मत बिना कोई देर किये हुए करनी पड़ेगी। इससे आर्थिक स्थिति में भी सुधार आयेगा और सुरक्षा की भावना भी बढ़ेगी। हमें यह याद रखना होगा कि बिहार में बाढ़ ऐसे समय में आयी है जबकि देश के पूर्वी हिस्से पर युद्ध के बादल छाने लगे हैं।
(A Calamity, Ed, The Indian Nation-Patna, 4th August, 1971)