चीन में ईसा पूर्व 700 वर्ष से ह्वांग हो नदी पर बने बांधों का ज़िक्र आता है। उसके बाद बेबीलोन में कुछ बाँध बने थे। इटली की पो नदी पर पहली शताब्दी में बांधो का निर्माण हुआ। मिसिसिपी नदी के तटबंध 17 वीं शताब्दी में बने थे और भारत में इसके प्रचलन की कुछ चर्चा कौटिल्य के अर्थ शास्त्र में मिलती है। बंध शब्द प्रचलित है तालाबों, वापियों और नयी व्यवस्था में आहर के सन्दर्भ में इसका उपयोग हुआ है। अंग्रेजों ने भारत में रह कर बहुत से बांधों और तटबंधों का निर्माण किया, जिनकी वजह से उन्हें सिंचाई की विधा सीखने को मिली और उन्होनें काफी पैसा कमाया। मगर तटबंधों की मदद से बाढ़ रोकने में वो मुंह की खा गए और 1870 के आस पास उन्होनें नदियों के किनारे तटबंध न बनाने की कसम सी खा ली थी, जो उन्होनें भारत छोड़ने तक निभाई।
उनके जाने के बाद हमने बहुत से तटबंधों के निर्माण का काम छोटे पैमाने पर शुरू किया, मगर असली खेल कोसी तटबंध की स्वीकृति के बाद से 1953 में शुरू हुआ और जब इस योजना पर 14 जनवरी 1955 में काम शुरू हुआ तब बाढ़ नियंत्रण की बहस की हत्या सी हो गयी और फिर बिना किसी बहस या तैयारी के तटबंधों का निर्माण शुरू हुआ। जहां तक बिहार का ताल्लुक है, 1953 में यहाँ की नदियों पर 160 कि.मी. लम्बे तटबंध थे और राज्य का बाढ़ प्रवण क्षेत्र 25 लाख हेक्टेयर हुआ करता था। आज इनकी लम्बाई 3,700 कि.मी. से ऊपर है और बाढ़ प्रवण क्षेत्र 68.8 लाख हेक्टेयर (1994) है। 1994 के बाद से राज्य के बाढ़ प्रवण क्षेत्र का मूल्यांकन नहीं हुआ है। इसमें अगर कुसहा में 2008 में बाढ़ से क्षतिग्रस्त हुए 4.153 लाख हेक्टेयर को जोड़ दें तो राज्य का बाढ़ प्रवण क्षेत्र 73 लाख हेक्टेर हो जाता है जो राज्य के कुल क्षेत्रफल का लगभग 80 प्रतिशत है।
राज्य की 80 प्रतिशत जनता भी अपनी जीविका के लिए कृषि पर आधारित है, उसी से यहाँ बाढ़ से हुई क्षति का क्या मतलब निकलता है उसका सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। हमने जो अरबों रुपये बाढ़ नियंत्रण या प्रबंधन पर खर्च किये, उसने हमें फायदे की जगह नुक्सान पंहुचाया है और इसकी फ़िक्र जिन्हें होनी चाहिए थी वो आँखें बंद किये बैठे है।