1973 में बिहार (तब अविभाजित) में जबरदस्त सूखा पड़ा था। अगस्त महीने में विधानसभा में सूखे की समीक्षात्मक बहस चल रही थी। बैरागी उरांव अपना भाषण दे रहे थे। उन्होंने कहा कि,
"अभी सुखाड़ पर वाद विवाद चल रहा है तो फिर दो-एक रोज में बाढ़ पर चलेगा। ऐसी स्थिति जब आ जाती है राज्य में तब सरकार रिलीफ का काम शुरू कर देती है और गांव में कुछ रुपये बांटे जाते हैं। अभी भी सुखाड़ में रुपये बांटे गये होंगे जिसे हिसाब लगा कर देखा जाये तो प्रति गांव 78 रुपये पड़ते हैं। आप समझ सकते हैं कि इस रुपये से क्या होगा? अगर आप कम से कम एक हजार रुपये भी प्रति गांव देते तो कुछ होता।
मैं तो कहूंगा कि हमारे राज्य में रिलीफ़ नहीं चाहिये। राहत कार्य चलाने की कोई जरूरत नहीं है। आप जानते हैं कि जब संकट आ जाता है, जब हम सुखाड़ या बाढ़ की चपेट में आ जाते हैं, तो मेरी राय है कि, आप इसके लिये पहले से जागरूक रहें और लोगों को ऐसी योजना दें, ऐसा काम दें जो सालो भर यह संकट की स्थिति आने ही न पाये। जब समय बीत जाता है तो जागने से रिलीफ़ का काम करने से वह लौट तो नहीं सकता। मैं ध्यान खींचना चाहूंगा कि जो बिचड़े अभी सुखाड़ में सूख गये क्या वह रिलीफ कार्य से पनप सकेंगे? मैं तो कहूंगा कि अभी जो वर्षा हुई है वह भी उस बिचड़े को हरा नहीं कर सकती। आप कहते हैं कि हमारे राज्य में तीन फसलें होती हैं। मैं तो कहता हूं कि यह छोटा-नागपुर के लिये ही लागू होता है। उत्तर बिहार में छः फसलें होती हैं। 3 फसलें खेत में और 3 रिलीफ़ में। कभी आग लगी तो रिलीफ, कभी सुखाड़ हुआ तो रिलीफ़ और कभी बाढ़ के लिये रिलीफ़ देकर आप छः फसलें उगाते हैं।
हम लोग चाहते हैं कि वहां पर स्थायी काम दिया जाए... आप जो रुपया दे रहे हैं उससे कुछ होने वाला नहीं है। वहां स्थायी रूप से लोगों को काम दीजियेगा, तभी कुछ होगा।"
कितनी सही बात कही थी बैरागी बाबू ने, हम 50 साल बाद भी रिलीफ़ बांट रहे हैं। स्थायी प्रयास केवल चर्चा करने के लिये है।