बिहार-बाढ़-सुखाड़-अकाल
वहाँ न तो जलावन की व्यवस्था थी और न अनाज का ठिकाना।
बिहार के भागलपुर जिले में कुरसेला के पास कोसी और गंगा का संगम होता है और इन दोनों नदियों के बीच में जिले के उत्तरी भाग की अच्छी खासी आबादी फँसी हुई है और प्रायः हर साल कोसी और गंगा के बीच के ग्रामीण क्षेत्र में जीवन असामान्य हो जाता है। 1971 में गाँव की स्थिति बहुत ही चिन्ताजनक हो गयी थी। हमने वहां का भुक्त भोगी पक्ष जानने के लिये चोड़हर घाट-रतनपुरा, प्रखंड खरीक, जिला भागलपुर के 88 वर्षीय किसान-शिक्षक श्री कार्तिक प्रसाद सिंह से उनका उस समय का अनुभव जानना चाहा। उन्होंने जो कुछ भी कहा उसे हम उन्हीं के शब्दों में यहां उद्धृत कर रहे हैं।
उनका कहना था कि, हम लोग कोसी के दायें-बायें नहीं, इस नदी के पेट में बसे हुए हैं। हमारे तीन गाँवों के झुंड में कोसी चारों तरफ है। जिले के नवगछिया अनुमंडल का मुख्यालय हमारे यहाँ से लगभग 10 किलोमीटर है। उस साल नवगछिया बाजार में पानी था और वह लोग तो अपने में ही परेशान थे। वहाँ बाजार में नाव चलती थी। यही वजह थी कि वहाँ से हम लोगों को कोई मदद नहीं मिल पायी।
हमारा ढाई सौ घरों का गांव था रातनपूरा जिसमें अधिकांश घर बस फूस के थे। मिट्टी की दीवारों वाले घर 60-70 के करीब रहे होंगें और बीच में कुछ 20-25 पक्के घर भी थे जिसमें हम लोगों ने उस साल जाकर शरण ली थी। बाढ़ में फँसे लोगों का ऐसे घरों में छत पर सोने का इन्तजाम हो जाता था। ऐसे घर अधिकतर खाते-पीते परिवारों के थे तो वहाँ खाने-पीने की व्यवस्था भी हो जाया करती थी। वैसे भी हम लोग सत्तू और चूड़ा खाने वाले लोग हैं जिसमें ईंधन-जलावन की जरूरत नहीं पड़ती है।
मैं उसे बाढ़ का स्वयं मुक्त भोगी हूँ और मैं उस दौर से खुद गुजरा हूँ। उसे देखा भी है और सहा भी है। बाढ़ से निपटने की उन दिनों हमारी उतनी तैयारी भी नहीं थी और हमारे गाँव में तब नाव भी नहीं थी। हम लोगों ने बोरे में भूसा भर के बाढ़ से घिरे हुए लोगों को उस पर बैठा कर निकालने का काम किया था और सुरक्षित स्थान पर पहुँचाया था। भूसे के बोरे को एकदम टाइट करके भरना पडता था और उसी पर लोगों को बैठा कर जैसे-तैसे सूखे या बिना पानी के स्थान पर पहुँचा दिया जाता था। बोरा पानी में डूबता नहीं था। किनारे पर लोगों को पहुँचा तो दिया जाता था। पर अक्सर सुरक्षित स्थान पर पहुँचने वाले और पहुँचाने वाले को सुरक्षा तो मिल जाती थी पर भोजन की कोई व्यवस्था करने में बहुत मुश्किल पड़ती थी। वहाँ न तो जलावन की व्यवस्था थी और न अनाज का ठिकाना। पर जान बचाने के लिए इसके अलावा और कोई रास्ता भी नहीं था। विपरीत परिस्थितियों में नई जगह पर तुरन्त कोई व्यवस्था कर पाना आसान नही होता। हर तरफ से पानी से घिरे होने के बावजूद पीने के पानी की कोई व्यवस्था नहीं हो पाती थी। नदी का पानी ही पीना पड़ता था। कोई बीमार पड़ जाए या चोटिल हो जाये तो उसके दवा-दरपन की भी व्यवस्था भी नहीं हो पाती थी।
गाँव से दूर के हमारे नाते-रिश्ते वाले लोग थे और वह मदद के लिए आना भी चाहते थे लेकिन उनसे सम्बन्ध बनाये रखने का उस वक्त कोई साधन नहीं था। अपने गाँव में जो ऊँचा स्थान था या अगर कोई पक्का मकान था तो उसके ऊपर ही चले जाते थे। बाढ़ पीड़ितों की संख्या को देखते हुए ऐसी जगह बहुत कम उपलब्ध होती थी। बरसात का मौसम तो था ही। कभी पानी बरसने लगे तो क्या ऊँची खुली जगह और क्या पक्के मकान की छत, सब बराबर हो जाता था।
हमारे गाँव से लगे हुए चौसा अंचल में हमारे गाँव की कुछ जमीन ऊँची जमीन है तो जानवरों को वही रख दिया गया था और यह काम हमलोग अक्सर किया करते हैं। इसलिये हमारे जानवर तो बचे रह गये। जब हम लोग इस कठिन दौर से निकल गए और स्थिति लगभग सामान्य होने लगी तब सरकार की मदद हम तक पहुँची 15 अगस्त तक तो हम लोग पानी से घिरे ही रहे थे। 16 अगस्त से पानी उतरना शुरू हुआ लेकिन आवाजाही शुरू होने में तो समय लगता है इसलिये सरकार को भी पहुँचने में वहाँ समय लगा। यह सम्पर्क भी तभी हुआ जब नाव आने लायक पानी हो गया। स्वास्थ्य सेवाओं को हम तक पहुँचने में और भी ज्यादा समय लग गया।
हमलोग तो बाढ़ के घर में हैं इसलिये तैयारी रहती ही है। कभी बाहरी मदद मिली तो मिली वरना हमारे लिये नया कुछ भी नहीं है।
श्री कार्तिक प्रसाद सिंह