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कोसी नदी अपडेट - बिहार बाढ़, सुखाड़ और अकाल, निर्माणाधीन कोसी पूर्वी तटबन्ध की दरार-1956

  • By
  • Dr Dinesh kumar Mishra
  • January-09-2021
(बिहार-बाढ़-सूखा-अकाल) निर्माणाधीन कोसी पूर्वी तटबन्ध की दरार-1956

बाबूलाल साह, उम्र 83-84 वर्ष, ग्राम बभनी, (अब) जिला सुपौल से हुई मेरी बातचीत के कुछ अंश। वह बताते हैं कि..

1956 में जब कोसी के पूर्वी तटबंध के निर्माण के समय कोसी फुलकाहा के पास छूटे गैप (कोसी बराज साइट से 49 किलोमीटर नीचे) से तमाम कोशिशों के बाद बाहर आ गई, तब मैं 14-15 साल का रहा होऊंगा। आषाढ़-सावन (यह जुलाई,1956 के पहले पखवाड़े की घटना है) का महीना था। ज़्यादातर लोग इसे बाँध का टूटना ही मानते थे क्योंकि बाँध भले ही पूरा न बना हो पर उसका काम काफी हद तक तो हो ही चुका था। फुलकाहा के रतनपूरा टोले में रात में बाँध टूटा था। यह जगह पूर्वी तटबन्ध पर बराज से 49 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है।


हमारा गाँव बभनी, रतनपूरा से 6-7 किलोमीटर दक्षिण में पूर्वी तटबंध के 56-57 किलोमीटर (मौजूदा कोसी बराज से दूरी) पर है। तब पानी बहुत हो गया था और हम लोग अपना माल-जाल लेकर भाग कर बाँध पर ही आ गये थे। बाँध को तोड़ता हुआ नदी का पानी महुआ, चांदसीपट्टी, मलहद, बैरिया, परसा, बकौर, बसभिट्टी आदि गाँवों की तरफ चला गया था। यहाँ से 6-7 किलोमीटर दूर पूरब में एक गाँव कैलाशपुरी है और यह पानी वहाँ तक फैला था और फिर नीचे सहरसा, मधेपुरा की ओर चला गया था। परसा से सुपौल मिला कर 40-50 गाँव जरूर इस दरार की वजह से पानी में डूबे होंगे।


हम सभी लोगों को भाग कर तटबन्ध पर शरण लेनी पड़ी थी, जहाँ गाँव के सभी लोग आने वाले कुछ महीनों तक रहने के लिये मजबूर थे। यह तय था कि जब तक नदी का पानी इतना न घट जाये कि दरार को पाटा जा सके तब तक यहीं रहना था। रहना-सहना, खाना-पीना सब वहीं होता था।

बरसात के दो-तीन महीनें तक तो नदी हमारे गाँव से ही होकर बह रही थी फिर उसका पानी घटना शुरू हुआ और अगहन-पूस (दिसम्बर,1957) में दरार पाटने का काम शुरू हुआ। अपनी जमीन पर लौटने में फागुन (मार्च) का महीना हो गया था। एक बार फिर बाँस-फूस का घर बना। बाँध का काम तभी भी पूरा नहीं हो पाया था और वहाँ तक पहुँचने के लिये नाव का ही सहारा लेना पड़ता था। पूरा गाँव तितर-बितर हो गया था। सुपौल जाने के लिये परसा होकर जाना पड़ता था। डाक्टर नहीं था तो किसी के बीमार पड़ने पर बहुत दिक्कत होती थी। सरकार से कोई खास मदद नहीं मिली थी। मड़ुआ, भतुआ (सफ़ेद कुम्हड़ा) खाकर थोड़ी बहुत मजदूरी के भरोसे जैसे-तैसे जिन्दगी बसर की थी। पटेर की चटाई बना ली थी। ओढ़ना और बिछौना दोनों ही वही था। कुछ लोगों ने पुआल का इंतजाम कर लिया था। लगभग छ: महीने बांध पर इसी तरह गुज़रे।

गाँव तक अब सड़क तो बन गयी है पर बाँध तक जाने के लिये नाव की जरूरत पड़ती है। फसल के नाम पर अब सिर्फ गरमा धान होता है और उसके लिये भी पानी पर से भाखन (जलकुम्भी) हटा कर ही खेत निकालना पड़ता है। जिसके पास गाय-भैंस है वह दूध बेच कर कुछ कमाई कर लेता है। यहाँ के आधे जवान काम की खोज में अब दिल्ली-पंजाब जाने लगे हैं।

हमारे और आसपास के कई गाँवों में जितनी बैलगाड़ियाँ थीं वह सब की सब कोसी प्रोजेक्ट ने ले ली थीं। हमारे यहाँ दो-तीन ठेलुआ मशीन, जैसी आजकल जेसीबी होती है न (उनका इशारा बुलडोजर की तरफ था), मिट्टी इधर से उधर करने के लिये आयी थीं।

उस समय कोसी परियोजना का एक बड़ा ही अड़ियल अफसर था, जो नहीं चाहता था कि लोग बाँध पर रहें। लोग पत्तल पर रख कर खाना खाते थे तो उनको भगाने के लिए पत्तल पर साइकिल चढ़ा देता था। बोलता था कि जूठन गिरने से बाँध खराब हो जायेगा और चावल गिरेगा तो मिट्टी में सड़न पैदा होगी। बाँध की दरार पाटने के काम के लिये हमारे गाँव में बाहर से कुछ श्रमदानी विद्यार्थी आये थे। उन्होंने कुछ काम किया भी था पर वह गाँव के आम के पेड़ों के सारे टिकोरे नोंच-नोंच कर खा गये थे।

श्री बाबू लाल साह

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