बिहार-बाढ़-सूखा- अकाल
ग्राम/पोस्ट महिषी, जिला सहरसा से मेरी बातचीत के कुछ अंश
1960 में बिहार में भयंकर सूखा पड़ा था, जिसे कुछ लोग अकाल भी मानते हैं। इसका असर सहरसा जैसे जिले पर भी पड़ा था, जिसकी प्रसिद्धि हमेशा बाढ़-प्रवण स्थान की रही है। 87 वर्षीय श्री केदार मिश्र ने मुझे उस वर्ष की कठिनाईयों के बारे में बताया। उनका कथन उन्हीं के शब्दों में।
1960 में यहाँ अकाल जैसी परिस्थिति पैदा हो गयी थी, यहाँ तक कि महिषी जैसे ठीक-ठाक गाँव में भी लोगों को अल्हुआ (शकरकन्द) नियमित रूप से खाना पड़ गया था। फसल की कोई उम्मीद नहीं थी। नहर-छहर के पानी का किसी तरह का कोई इन्तजाम नहीं था। बड़े लोगों का जब यह हाल था तब बाकी लोगों का जो हाल होना था वह तो हुआ ही।
महिषी के सामने कोसी नदी के उस पार आरा और मुरली आदि गाँव है, जहाँ उस साल अल्हुआ खूब हुआ था जो 75 पैसे (बारह आने) में एक मन मिलता था। उसी को यहाँ के बहुत से लोग लाकर खाते थे। अल्हुआ भी हर जगह नहीं होता था। मूँग थोड़ी-बहुत हो गयी थी तो उसकी फली तोड़ कर लायी जाती थी और उसकी दाल बनती थी जो सब्जी का भी काम करती थी। यह तो हमने अपनी आंखों से देखा हुआ था और कुछ भोगा भी था।
अल्हुआ उबाल कर खाया जा सकता था या फिर उसे ओखली में कूट कर सुखा लिया जाता था और फिर उसकी जाँते में पिसायी होती थी, जो प्रायः हर घर में होता था क्योंकि गेहूँ पीसने की मशीन तो हर जगह थी नहीं। इस तरह से अल्हुआ का आटा तैयार होता था और उसकी रोटी बनती थी। जिसे मूँग की दाल या अगर और भी कुछ उपलब्ध हो तो उसके साथ खाया जाता था। ऐसा लगभग दो-तीन साल तक चला था।
उस समय यहाँ तक कोसी का तटबन्ध बन चुका था मगर बेराज नहीं बना था। बेराज के निर्माण के समय भी पानी रोका तो नहीं जा सकता था पर पानी के प्रवाह को कभी तटबंधों के बीच कभी इधर तो कभी उधर घुमा दिया जाता था ताकि निर्माण कार्य में सुविधा हो। अतः नदी के पानी का भी कोई भरोसा नहीं रह जाता था।
हमारे गाँव में अनाज के दो सरकारी गोदाम बने थे लेकिन आने-जाने का रास्ता दुरुस्त न होने के कारण यहाँ तक अनाज पहुँचाने में बहुत असुविधा होती थी। स्थानीय रोजगार कुछ उपलब्ध नहीं था तो लोग पूर्व की ओर बंगाल, असम की तरफ चले जाते थे और वहाँ से कुछ पैसा कमा कर लाते थे। पश्चिम की तरफ कोई नहीं जाता था। आज कल लोग पश्चिम की ओर जाने लगे हैं।
अब यहाँ धान लगभग समाप्त हो गया है क्योंकि निचले इलाकों में जलजमाव के कारण पानी बहुत दिनों तक बना रहता है। ऐसे पानी में मखाना होने लगा है और लोग उसके प्रति आग्रही भी हो रहे हैं। इसके लिये भी माकूल जमीन होनी चाहिये जो सबके पास तो नहीं ही है। उसके विक्रय की भी समस्या है। सरकार उसकी कृषि में प्रोत्साहन देने का प्रयास करती है मगर उसका फायदा बिचौलिये उठाते हैं, किसान अपनी जगह बना रहता है। ऊपर वाली जमीन पर खेती हो सकती है मगर वहाँ बन्दरों, सूअर और नीलगाय का प्रकोप है। जमीन में डाले गये बीज को खोद कर खा लेने से लेकर खड़ी फसल तक को यह जानवर नष्ट कर देते हैं। इसलिये विकास तो बहुत हुआ मगर लोग जहां पचास साल पहले थे वहीं हैं। अगर घर के जवान बाहर से पैसा कमा कर न लायेँ तो परिवार चलाना मुश्किल होता है।
श्री केदार मिश्र