मैं अकेला था सो घर छोड़ कर यूनिवर्सिटी क्षेत्र में चला गया। उधर पानी नहीं था। वहाँ हम मित्रों ने जो कुछ भी खाने का सामान या कपड़ा आदि मिल सकता था, उसे इकट्ठा करना शुरू किया और नाव से निकल जाते थे कि जरूरतमन्द लोगों के बीच बाँट दें। कभी-कभी अगर जुगाड़ बैठ गया तो केतली में चाय बना कर भी उन लोगों तक पहुँचा देते थे, लेकिन उस समय गज़ब का आपसी सहयोग देखने को मिला। सरकार से जो रिलीफ बाँटी जा रही थी वह भी ठीक ही चल रही थी।
बिजली तो कटी रही कम से कम 4-5 दिन तक और नल में पानी तो तब आना शुरू हुआ जब पानी उतर गया और नलों का मुंह दिखाई पड़ना शुरू हुआ। यह पानी निश्चित रूप से पीने लायक तो नहीं ही था और जो इसे उबाल सकते थे वह शायद इसका पीने और खाना बनाने में इस्तेमाल कर सके होंगें। कुछ लोग नाव से घरों में पीने के पानी पहुँचाने का काम कर रहे थे। अशोक राजपथ पर एक दिन पैर भीगने भर पानी आया था। पी.एम.सी.एच. (पटना मेडिकल कॉलेज ऐंड हॉस्पीटल) काम कर रहा था और उस क्षेत्र की दवा की दुकानें भी खुली हुई थीं। पुराना पटना बचा हुआ था। बीच का थोडा सा क्षेत्र नीचा था तो वहाँ पानी था, भगवान की कृपा थी कि कोई महामारी नहीं फैली। छोटी मोटी बीमारियाँ जरूर हुईं।
आज जो आपदा प्रबन्धन की स्थिति है वह काफी मजबूत है जो उस समय एकदम नहीं थी। एक तो पानी अचानक आया और दूसरे उसका मुकाबला करने की कोई तैयारी नहीं थी। आज जो आप किसी भी दूर-दराज़ के इलाके में भी 6-7 घंटे में मदद लेकर पहुँच जायेंगें। इतना तो फर्क पड़ा है। मैं तो इतना डर गया था कि पुनाईचक छोड़ कर यूनिवर्सिटी की ओर ही रहने के लिये चला आया। मेरे जैसे बहुत लोग रहे होंगें। कुछ लोग आसपास की जगहों से नौकरी या छोटा-बड़ा काम करने के लिए रोज़ पटना आते-जाते थे। उनकी क्या हालत हुई होगी आप आसानी से कल्पना कर सकते हैं। मैं खुद भी गया से आना-जाना करता था। दूध, सब्जी वगैरह गंगा पार के इलाके से आ जाती थी, उसकी कमी कोई ख़ास महसूस नहीं हुई थी।
(श्री कृष्ण कांत चौबे)