(साभार: सर्व श्री सरोज कुमार सिंह, सुभाष दुबे, प्रवीर प्रवाह)
महिसौरा गाँव बिहार के लखीसराय जिले के पश्चिमी छोर पर बसा हुआ है। यह तीन तरफ से नदियों से घिरा हुआ है, जिसके पूरब में सोमै, पश्चिम में नाटी और दक्षिण में दुन्दू नदी है। उत्तर में रेलवे लाइन एवं सड़क है। 1961 के सितंबर महीने के अन्तिम दिनों में बिहार में जबरदस्त बारिश शुरू हुई जो 2 अक्टूबर आते आते-आते भयंकर बाढ़ में बदल गई। इन सारी नदियों का पानी बाढ़ बन कर 2 अक्टूबर 1961, दिन शनिवार, को महिसौरा गाँव से होकर गुजरा। यह पानी हथिया नक्षत्र का था, जिसे भोगने की यहाँ के लोगों को आदत है।
करीब 24 घन्टे तक इस बाढ़ का तांडव महिसौरा और पास के नदियामा गाँव में हुआ। यह पानी तभी निकलना शुरू हुआ जब उत्तर के सिसवाँ गाँव में स्थित एक रेल पुल ध्वस्त हो गया या स्थानीय लोगों ने उसे निरस्त कर दिया। इस घटना में इस गाँव के 600 के आसपास लोग बाढ़ में बह गये थे। यह पूरी कहानी मुझे इसी गाँव के 85 वर्षीय बुजुर्ग श्री महेश्वर सिंह ने विस्तार से सुनाई। उस दिन जितिया का पर्व था।
उनका कहना था कि, पानी हमारे यहाँ सुबह ही आया था लेकिन उसके पिछले दो दिन से दिन-रात लगातार पानी बरसता रहा था। खड़गपुर झील भी टूट गई थी। पूरब से पानी दबा रहा था। बहुत सी अन्य नदियाँ भी जैसे किउल वगैरह सभी उफान पर थीं। कौवाकोल के पास में भी एक नदी है जिस पर डैम बना कर नहर निकाली गयी थी। उस डैम से भी पानी छोड़ दिया गया था और वह पानी, खड़गपुर झील का पानी, छोटी-मोटी नदियों तथा बारिश का पानी सब मिल-जुल कर यहाँ आया और जमा हो गया। उसके निकलने का कोई साधन नहीं रहा।
इधर रेलवे लाइन ऊँची, सड़क ऊँची और इतना पानी गाँव से होकर बहने लगा कि सुबह होने पर जब हालत देखी तो सिसवाँ गाँव में रेलवे लाइन पर एक पुल था जिसको लोगों ने जाकर काट दिया। यह स्थान हमारे गाँव से करीब एक किलोमीटर दूरी पर है। तब वह पानी कुछ निकलने लगा।
उन दिनों घर मिट्टी के बने होते थे और उनको ध्वस्त होते देर नहीं लगी। पुल काट देने पर यह पानी बेतहाशा भागने लगा था और शाम तक काफी पानी निकल गया। तब कहीं जाकर शान्ति हुई और तभी पता लगा कि सबका अनाज पानी में डूबने की वजह से नष्ट हो गया है। गाँव में इस बाढ़ में मरने वालों और बह जाने वालों की पहचान शुरू हुई। कितने पशु-पक्षी मर गये और चारों तरफ दुर्गंध फैल रही थी। कितने लोग इस घटना में मारे गये इस पर चर्चा शुरू हुई, कितने बह गये उसका अनुमान लगाया जाने लगा। कितने घर बचे, किस-किस के कितने जानवरों का पता नहीं है आदि आदि।
ऐसी परिस्थिति में यहाँ गाँव में भूदान आन्दोलन वाले लोग आये और मिट्टी का तेल छिड़क कर सब लाशों को जला दिया। कितने रस्सी पकड़े हुए लोग खड़े के खड़े रह गये और उनके ऊपर से पानी बह निकला। एक साथ इतने लोगों को मरा देख कर देह काँप जाती थी। साँप-बिच्छू का तो कोई ठिकाना ही नहीं था। यह सब दृश्य जेपी (जयप्रकाश नारायण) 20 अक्टूबर के दिन यहाँ आकर देख गये थे।
मदद के लिये सबसे पहले आगे आये टाटा कम्पनी के लोग जो ट्रक पर लाद कर हमारे यहाँ कोयला लेकर आये थे। उसे उन्होंने हम लोगों को मुफ्त में दिया कि आप लोग इस कोयले की मदद से मिट्टी पाथ कर ईंटा बना लीजियेगा जिस से घर बन सके। उस वक्त बिनोदानन्द झा मुख्यमंत्री थे और यह क्षेत्र उन्हीं का निर्वाचन क्षेत्र था। घटना के कुछ दिन बाद वह यहाँ आये और आश्वासन दिया कि इस गाँव को सरकार देवघर के तीर्थ की तरह से विकसित करेगी। लोगों का कहना था कि वह सब तो बाद में होगा पर अभी जो स्थिति है उससे निपटने का रास्ता बतायेँ और सरकार से मदद दिलवाइये। यह शायद उन्हें अच्छा नहीं लगा वह नाराज हो कर चले गये और सरकार की तरफ से यहाँ कोई मदद खास नहीं मिली।
हम लोगों को कतई अन्दाजा नहीं था कि कभी इस तरह की तबाही होगी। उस समय हमारे गाँव में दो से ढाई सौ घरों की बस्ती थी। आजकल तो रोज बच्चा जन्मता है और हिस्सा बँट जाता है तो घर भी बहुत हो गये हैं। अभी 500 के ऊपर घर जरूर होंगे। उस समय 100 परिवारों का रामनगर-तेजपुर नामक हमारे गाँव का एक टोला हुआ करता था जो कुछ ऊपर जाकर अलग से बसा था। उसमें सिर्फ एक आदमी बचा था जो पीपल के पेड़ पर चढ़ गया था, बाकी सब साफ हो गये थे। उसका नाम तो अब याद नहीं है पर शक्ल तो सामने घूम रही है।
सरकार कहती थी कि 175 लोग मरे। महिसौरा के तो एक सौ परिवार इसी रामनगर-तेजपुर टोल में खत्म हो गये। बाकी का कोई ठिकाना है गाँव में? कोई पूजा कर रहा है वह गया, गली में लोग खड़े होकर के बातें कर रहे थे वह भी बह गये, हमारे गाँव में एक स्कूल था और उसका छात्रावास भी था। उसमें बच्चे थे जिनका पता ही नहीं लगा। सिकन्दरा के चार लड़के गाँव में के स्कूल में पढ़ते थे वह भी बह गये। वहीं स्कूल में उनका खाना बन रहा था और बच्चे थाली लेकर खड़े थे। सब गंगा जी पहुँच गये। मुझे नहीं याद आता है कि हमारे गाँव का कोई आदमी बह गया हो और वह बाद में जिन्दा लौट आया हो। हमारे घर के सामने वाली गली में एक मंजिला घर देखते-देखते पानी में बह गया। पानी का प्रवाह गजब का था, कौन बचेगा उस पानी के सामने?
हमारा घर तो दो महले का था जिसमें 500 आदमी उसके कोठे पर रह रहे थे। नीचे की मंजिल में तो पानी भरा हुआ था। पूरे गाँव में ऐसे छः घर थे जिनमें ऊपरी मंजिल भी थी। इन घरों की वजह से गाँव में तो दो हजार के करीब लोग बच गये। एक मंजिल वाले घरों में तो कोई नहीं बचा। ऐसे घरों में तो केवल साँप-बिच्छू आदि ही रह रहे थे। गाय-गोरू सब बह गये थे आँखों के सामने। बचाओ-बचाओ चिल्लाते हुए लोग सामने से बहते चले जा रहे थे और कौन जाता उनको बचाने के लिये? जो बचाने जाता वह भी मर जाता।
छप्पर पर चढ़े कितने लोग हमारे सामने से बह गये। मुसहर और हरिजनों के घरों के लोग घरों के छप्पर ऊपर चढ़ गये थे और वह छप्पर समेत गंगा जी में चले गये। 24 से 30 घंटा तो हम लोग तेज पानी की धारा के बीच में रहे। दूसरे दिन दोपहर बाद पानी घटना शुरू हो गया था और शाम को लोगों के पैर जमीन पर टिकने लगे थे। खाना मिल सके उसकी प्रतीक्षा में तीन दिन बीत गया। बच्चों को जैसे-तैसे भूजा, मकई का सतुआ वगैरह खिला कर रखा था। उसके लिये भी तो पानी चाहिये था। साफ पानी कहीं था ही नहीं। ऊँची जगहों पर गाय-भैंस और बैलों को रख दिया था। वह भी चारे के अभाव में भूखे पड़े रहे थे। पानी इन्हें जरूर मिल जाता रहा होगा।
उसी गाय-भैंस को दुह कर बच्चों को दूध दिया जा सकता था मगर भैंस तक पहुँचेंगे तब तो उसको दुहेंगे। हजारों की संख्या में लोग मुसीबत में थे मगर सरकार तो तब पहुँचेगी जब उसके आने लायक सड़क बन जायेगी। वैसे भी सरकार थी कहाँ? जब सरकार आयी तो पहले उसके कारिन्दे आये, फिर सर्वे किया, नाम लिख कर ले गये पर दिया कुछ भी नहीं। थोड़ा बहुत खाने का सामान दिया था। टाटा ने सड़क के किनारे रेलवे लाइन के पास कोयला गिरा दिया था। वही कोयला उठा-उठा कर लोग लाये और भट्ठा लगाया। ईंट बनी और फिर उसके बाद घर बना।
यह घटना आश्विन मास में घटी थी। उसके बाद कार्तिक महीना आ गया और ठंड पड़ने लगी। भूदान और टाटा वालों ने कुछ त्रिपाल वगैरह का प्रबन्ध कर दिया था, कुछ कम्बल भी मिले थे, कुछ लकड़ी बह कर बाहर से आ गयी थी जिसको लोगों ने पकड़ लिया था। फिर पेड़ काटे गये। जैसे-तैसे जाड़े का प्रबन्ध किया गया। हम लोगों के पास जो कम्बल, गद्दा, रजाई, आदि था वह तो सब मिट्टी में मिल गया था।
अनाज,कपड़े, गहना-गुरिया, रुपये-पैसे सब बह गये थे। रब्बी में खेती से कुछ उपज गया था। मसूर और खेसारी तथा कुछ तेलहन हुआ था। गेहूँ और जौ नहीं हो पाया था। जिन्दगी वापस ढर्रे पर आने में एक साल से अधिक का समय लग गया था। नाते-रिश्तेदारों ने मदद की थी। रुपया-पैसा, कपड़ा-लत्ता, खाद्य सामग्री आदि से हर तरह से उन लोगों ने मदद की। बाहर वाले लोग जब गाँव आते तो कुछ न कुछ लेकर ही आते थे। खाली हाथ कोई नहीं आया।
यहाँ से 8 कोस पर लखीसराय और 3 कोस पर शेखपुरा है तो वहाँ से कौन जाकर कितना सामान लेकर आता। पर ऊपर वाला है, उसने सारा प्रबन्ध किया। बाद में बच्चों की स्कूल-कॉलेज की फीस वगैरह माफ हुई। भूदान वाले, खादी भंडार वाले आये थे लेकिन वह टाटा के बाद आये। और कोई नहीं आया। सरकार तो नाराज होकर भाग गयी थी।
गाँव के बहुत से लोगों को इस घटना का जबरदस्त सदमा लगा जो उन्हें बर्दाश्त नहीं हुआ था। कुछ दिन खाँसी-बुखार हुआ और चले गये। कुछ लोगों को इतना धक्का पहुँचा कि वह मानसिक संतुलन खो बैठे और बहक गये। जिसका सौ-सौ बोरे अनाज सड़ गया और घर के लोग मर गये, उसको होश कहाँ से रहता?
श्री महेश्वर सिंह