नेपाल के एक ख्यातिलब्ध इंजीनियर और समाज कर्मी अजय दीक्षित ने इस घटना पर कहा कि," नेपाल में कोई संचयन जलाशय है ही नहीं, जिससे पानी छोड़ा जा सके अतः जो कुछ भी बाढ़ आती है उसके पीछे क्षेत्र की जलीय परिस्थिति का एक दूसरे से जुड़ा होना है। नेपाल में कुछ वियर और बराज बने हुए हैं जिनमें कोई खास पानी जमा रखने की क्षमता नहीं है। केवल एक बांध कुलेखानी नदी पर बना हुआ है जिसमें मामूली मात्रा में बरसात का पानी इकट्ठा होता है। मगर जो आम समझदारी है उसमें पारंपरिक प्रतिक्रिया झलकती है जिससे समस्या और उसका समाधान दोनों ही स्थान और समय को देखते हुए बाहरी स्रोतों पर केंद्रित हो जाता है और उन्हें बाढ़ समस्या का समाधान पारंपरिक लकीर पीटने में ही दिखाई पड़ता है। हिमालयी पानी के विकास और प्रबंधन के दिशा में इन बातों से गंभीर सच्चाई का सामना करना होता है और इसके साथ ही इस दिशा में जो फायदे आते हैं उनका भी अंदाजा लगता है।"
जाहिर है कि हम अपनी जमीन और साझा नदियों की वजह से आती बाढ़ का दोष ऊपरी क्षेत्र पर डाल कर कि वह पानी छोड़ देता है या हमारी समस्या में रुचि नहीं ले रहा है, कह कर अपने दायित्वों से मुक्त हो जाते हैं।
नेपाल में बड़े बांधों का पहला प्रस्ताव 1937 में पटना बाढ़ सम्मेलन में किया गया था और तभी से, 83 साल हुए, दोनों देशों के बीच बांध निर्माण की वार्ताएं चल रही हैं। हर साल बरसात में सरकार द्वारा इस प्रयास का हवाला दिया जाता है, कमेटियां गठित होती हैं, अध्ययन होता है और उसके बाद सब कुछ शांत हो जाता है। यह काम अतिरिक्त गम्भीरता पूर्वक 1997 से हो रहा है और कारण चाहे जो भी रहा हो, अभी तक तबसे कोसी हाई डैम की प्रोजेक्ट रिपोर्ट नहीं बन पायी है। अगर प्रोजेक्ट रिपोर्ट 23 साल में भी नहीं बन पाती है तो बांध बनाने में कितने साल लगेंगे यह कौन जानता है?
यह बात अलग है कि बांध अगर बन भी जाए तो जहां उसका निर्माण होना है वहां से लेकर कोसी का नीचे का जलग्रहण क्षेत्र 13,676 वर्ग किलोमीटर है जिस पर उस बांध का कोई असर नहीं होगा। वहां बरसने वाली पानी की हर बूंद नदी में प्रवेश करने की कोशिश करेगी जिसे उसके किनारे बने तटबंध रोक देंगे और अतिरिक्त जल-जमाव का कारण बनेंगे। दूसरे, बांध बन जाने के बाद भी नदी को सूखा तो नहीं दिया जाएगा। बरसात में उसे चालू ही रखना पड़ेगा और उसकी वजह बांध से पानी छोड़ा ही जायेगा। बांध से छोड़ा हुआ पानी कोसी तटबंधों के बीच बसे लोगों को उसी तरह से तबाह करेगा जैसा वह आज करता है।
बांध के नीचे का नदी का जल ग्रहण क्षेत्र बागमती के जल ग्रहण क्षेत्र के लगभग बराबर है और कमला नदी के जल ग्रहण क्षेत्र का दुगुना है। अगर आपने इन नदियों में बाढ़ की हालत देखी है तो आप खुद अंदाजा लगा सकते हैं कि यह बांध बन जाने के बाद भी बांध के निचले क्षेत्र में बाढ़ और जल जमाव की स्थिति में कोई परिवर्तन नहीं आयेगा।
तीसरी बात, कोसी पर अगर बांध बना भी लिया जाए तो उस बांध का महानंदा, कमला, बागमती, और गंडक आदि नदियों की बाढ़ पर क्या कोई नियंत्रण हो पाएगा? इन नदियों का कोसी से कोई लेना-देना नहीं है। लेकिन बाढ़ किसी भी नदी घाटी में आये, बात कोसी पर प्रस्तावित बराहक्षेत्र बांध की होने लगती है। यह सब सवाल न तो पूछे जाते हैं और न इसका कोई जवाब दिया जाता है। इसलिए यथास्थिति बनी रहेगी और सरकार रिलीफ तब तक बांटेगी जब तक हम अपनी जमीन पर अपने संसाधनों से समाधान नहीं खोजेंगे। नदियों पर तटबंध बना कर हमने देखा लिया, बराहक्षेत्र बांध के ऊपर 83 साल बरबाद कर लिया, नदी-जोड़ योजना को 2017 में पूरा हो जाना चाहिए था, नहीं हुआ। क्यों?
बाढ़ से बचने के लिए हम क्या-क्या कर सकते हैं यह जानने के साथ-साथ यह जानना भी उतना ही जरूरी है कि हम क्या-क्या नहीं कर सकते हैं। ऐसी चीज़ों को छोड़ कर जब तक व्यावहारिक धरातल पर बात नहीं होगी तब तक इस समस्या का समाधान सोचा भी नहीं जा सकता।