शिवसे-हे भोलेनाथ! भगवान श्रीकृष्ण की उक्ति है (गीता-2.17) कि “जो सारे शरीर में व्यापत है, उसे ही तुम अविनाशी जान”, इसका अर्थ नहीं लग रहा है क्योकि इस शरीर में नाना तरहों की संवेदनाओं की अनूभूति निरंतरता से बनी रहती है. इनके अतिरिक्त मन का तारंगिक स्वरूप अलग तांडव करता रहता है. इनको यदि येनकेन प्रकारेण स्थिर भी किया तो बुद्धि की अस्थिरता बनी रहती है, यह ऐसा कि वैसा? और ये सभी अदृश्य है. ऐसी स्थिति में किसे अविनाशी समझा जाये? क्या ये सब आत्मा के साथ निरंतर जुड़े रहते हैं? आत्मा इनको क्यों जोड़ती है, जब आप उसके साथ रहते हैं? क्या ये सभी आत्मा के मैल हैं? क्या इसे ही “इग्नोरेंस आँफ ट्रूथ” कहते हैं? और भगवान श्रीकृष्ण आगे कहते हैं कि उस अवयव आत्मा को नष्ट करने में कोई भी समर्थ नहीं है तो इसका अर्थ है आत्मा से जुड़ा हुआ मैल ही संसार का कारण है? यही है आप का, संसार के बदलते स्वरूप की वस्तुओं को “लालीपाप” बनाकर, अनन्त अपने ही स्वरूप की आत्माओं को तड़पते देखने का खेल, अपने द्वारा निरंतरता से निर्लिप्त भाव से ध्यानस्थ रूप आत्मस्थ हो कर देखते रहना? ये सभी, मुझे तो, आपकी ठकपनी लगती है? इसलिए मात्र आपको जकड़ कर पकड़ना ही आत्मस्थ होना है.
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भगवान शिव से-हे भोलेनाथ! इस शरीर में “अप्रमेय आत्मा” इतनी सूक्ष्म है, जिसे मापा नहीं जा सकता. इसे भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं (गीता : 2.18) : जब आत्मा इतनी सूक्ष्म है तब इसकी भूख इतनी प्रचंड क्यों है? भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं “युद्ध करो”? इसका तो साफ अर्थ है कि इन्द्री और मन इतने सूक्ष्म आत्मा को घेरे रखता है? इतनी सूक्ष्म आत्मा के भीतर इन्द्रिय भोग की ललक कैसे? और इस आत्मा से जुड़े, इन्द्री भोग से निर्लिप्त, आप से, आत्मा का जुडाव नहीं होकर, इन्द्री भोग से जुड़ाव क्यों और कैसे? भोलेनाथ क्या यही आप की माया है? सटे रहकर भी आप हटे क्यों रहते है? आप दयावान हो कर भी निष्ठुर क्यों रहते हैं? क्या आप यह कहते हैं कि कर्म-प्रधान है? यही संसार से चिपकना आप से कोसों दूर जाना है?