गंगा का शरीर मिट्टी की विभिन्न परतों से निर्मित है, जहां एक परत दूसरे से भिन्न है. एक का कार्य एवं क्षमता दूसरे से भिन्न होने पर भी यह सभी आपस में जुड़े हुए हैं. यह ठीक उसी प्रकार है जैसे हमारे शरीर की ऊपरी परत, मध्य परत एवं भीतरी परत एक दूसरे से भिन्न है. इन सबकी बनावट और कार्य भी एक-दूसरे बिलकुल अलग है किन्तु वे एक दूसरे के सहायक हैं और आपस में जुड़े हुए हैं.
शिव से - हे भोलेनाथ! शरीरधारी आत्मा शरीर रूप से बाल्यकाल से तरुणावस्था और फिर वृद्धावस्था में निरन्तर अग्रसर होता रहता है और कब यह बच्चे से बूढा हो गया इसका तनिक भी आभास नहीं हो पाता है. इसी तरह मृत्यु के उपरांत वह आत्मा दूसरे शरीर में चली जाती है. इसे भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं (गीता-2.13) :
1. इतनी सूक्ष्मता से पुराने शरीर के समस्त कार्यों के परिणामों को गठरी व पोटरी को बटोरते और तदनुरूप तुरंत दूसरे निर्धारित शरीर में प्रवेश कैसे करना होता है?
2. क्या शरीर आत्मा का आर्विटल्स अक्षों का समूह है?
3. क्या इस शरीर के भीतर और सूक्ष्म शरीर भी हैं?
4. क्या इसके आउटर मोस्ट आर्विटल पर दृश्यावलोकित इन्द्रियाँ हैं?
5. क्या इसके भीतर मन का और उसके भीतर बुद्धि का और उसके भीतर केन्द्र में आत्मा और परमात्मा का आर्विटल्स हैं?
6. क्या सभी कोर्डिनेटेड हैं?
7. शरीर द्वारा किये गये समस्त कार्यो का और शक्तिओं का रिकॉर्डिंग कहाँ और कैसे होता और यह आत्मा से संयुक्त होकर बल व रूप से कैसे निकल कर दूसरे निर्धारित शरीर में प्रवेश कर जाता है?
इस समस्त खेल की अध्यक्षता आप बारीकी से व बिना भूलचूक के अनादि काल से करते आ रहे हैं. यही है, समस्त आत्माओं के अलग-अलग कार्य के अनुरूप अलग-अलग शरीर, आत्मा, गुण फल का होना.