सदियों से पृथ्वी लोक से लुप्त प्राय: हो रहे पुरातात्विक-योग की पुनर्स्थापना हेतु आया है कोरोना वायरस?
हे भोलेनाथ ! मैं हूँ कौन? मेरे साथ हैं कौन-कौन? हमारा उनका संबंध क्या है? क्या इन प्रश्नों के उत्तर को जानना मेरे ज्ञान को जागरूक नही करता और इन सभी को जानकर इन पर अडिग हो जाना ही तो ज्ञानयोग है. अपने उपार्जित शक्ति और सामर्थ्य को संरक्षित करने का अभ्यास करते रहना और लक्ष्य की ओर बढ़ते रहना ही तो कर्म योग है. हे दयावान-भोलेनाथ ! इस ज्ञानयोग "इन्द्रि-मन-बुद्धि-आत्मा" के संबंध का ज्ञान आपने आरंभ में किसी को दिया होगा और आगे उन्होंने फिर किसी को यह ज्ञान दिया होगा. इस तरह यह ज्ञान बढ़ता रहा होगा. इस तरह आपके समतूल्य-ब्रह्माण्ड की संरचना आरम्भ हुई होगी और लोग योग-ध्यान को आधार मानकर अपनी शान्तिपूर्ण दिनचर्या का पालन करते आ रहे होंगें.
इसी काल में वेदों-पुराणों आदि ग्रन्थों की संरचना हुई होगी. क्या समय रूपी काल की चक्की के साथ ये संरक्षित-ज्ञान घिसता-पिटटा-मिटता चला आ रहा हैं? इसी का परिणाम ही आपके मस्तिष्क पर सुशोभित और जटा से निस्तारित होकर भारत भूमि को धनधान्य से संवर्धित करती आ रही आत्मिय आनंदानंद को हृदयस्थ करने वाली मातेश्वरी गंगे आज विलुप्तावस्था में आ पहुँची है. इस तरह विश्व-भर में अनेकानेक तरहों के विनष्ट रूप अन्वेषणों से प्रकृति के दोहन और शोषण हो रहे हैं. क्या इन कुकृत्यों के निवार्णार्थ ही आपने कोरोना वायरस का शस्त्र छोड़ा है?
क्या भगवान श्रीकृष्ण इसी तथ्य का उजागर यहाँ कर रहे हैं?
श्री भगवानुवाच इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्यम् । विवस्वान्मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेअ्ब्रवीत् ।।
एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदुः । स कालेनेह महता योगो नष्टः परन्तप ।।
स एवायं मया तेअ्ध्ध योगः पुरातनः । भक्तोअ्सि मे सखा चेति रहस्यं ह्येतदुत्तमम् ।। गीता : 4.1-3
श्री भगवान बोले - मैंने इस अविनाशी योग को सूर्य से कहा था, सूर्य ने अपने पुत्र वैवस्वत मनु से कहा और मनु ने अपने पुत्र राजा इक्ष्वाकु से कहा. हे परंतप अर्जुन ! इस प्रकार परम्परा से प्राप्त हुए योग को राजर्षियों ने जाना; किन्तु उसके वाद यह योग इस पृथ्वी लोक में लुप्त हो गया. तू मेरा भक्त और प्रिय सखा है, इसलिये वही पुरातन योग आज मैंने तुमसे कहा है क्योंकि यह बड़ा ही उत्तम रहस्य है अर्थात् गुप्त रखने योग्य विषय है.
संपादकीय विशेष
हमारे सनातन धर्म, पुराणों, वेदों में कहा गया है कि प्रकृति मां के समान जीव-जगत का पालन करती है और व्यक्ति के लोभ-लालच से जब जब प्रकृति के संसाधनों पर्वतों, नदियों, जंगलों, वन्य जीवन आदि को कष्ट पहुंचता है तो पृथ्वी को भी इससे कष्ट होता है, जो किसी प्राकृतिक आपदा या महामारी के रूप में हमारे सामने आता है.
चलिए हम मान भी लें कि यह सब शास्त्रों में लिखित कुछ तथ्य हैं और इन पर हम क्यों विश्वास करें? लेकिन विचारणीय यह है कि वास्तव में हमने अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति करने के लिए नदियों, पहाड़ों, जंगलों का बेहिसाब शोषण किया है और वन्य जीवन को लेकर दया का भाव भी लोगों में नगण्य हो गया है, ऐसे में प्रभाव केवल प्राकृतिक संसाधनों तक ही सीमित नहीं रहा अपितु स्वयं हम पर भी हुआ है क्योंकि हम भी इसी प्रकृति की एक अहम संरचना हैं.
नदियों और पर्यावरण को दूषित करने से हमारा शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य भी प्रभावित हुआ है, हमारी रोग प्रतिरोधक क्षमता आज बेहद घटी है, नतीजतन इस हाई तकनीक के दौर में भी कोरोना ने हमें घुटने टेकने पर विवश सा कर दिया है. कहीं न कहीं इसके कुसूरवार तो हम मनुष्य ही हैं, जिन्होंने प्रकृति की परवाह छोड़ दी. 2-3 महीने से चल रहे लॉकडाउन बे जिस तरह प्रकृति को स्वच्छ और वन्य जीवन को स्वच्छंद किया, उससे साफ़ है कि कुदरत के सबसे बड़े गुनहगार मनुष्य और मानवीय गतिविधियां ही है. अभी भी समय है कि हम यह सोचे कैसे हम अपनी प्रकृति को ऐसे ही सुरक्षित रखें और खुद की भी सुरक्षा सुनिश्चित करें.